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लघुकथाएँ - संचयन -कमल चोपड़ा
खेल
एक फटे हुए कपड़े के बीच में गाँठ मारकर बनाई गई गुडि़या,एक डिबिया और कुछ टूटी–फूटी चूडि़यों के टुकड़े, अपने इन खिलौनों के साथ वीनू खोली के कोने में अकेला ही खेल रहा था।
खोली के दरवाजे को ठेलकर अंदर आए पैंट–कमीज वाले बाबू को देखकर वीनू डर गया। उसने भागकर अपनी माँ से हँस–हँसकर बातें करता देख वह कुछ आश्वस्त हुआ।
‘‘वीनू....तू लच्छी के घर जाकर उससे खेल....’’
लच्छी की याद आते ही वीनू अपने खिलौने समेटकर उसके घर खेलने चल दिया।
वापस आया तो दरवाजा बंद था। वह काफी देर खटखटाता रहा। दरवाजा खुला। बाबू उसकी माँ को कुछ रुपए देकर जाने लगा। जाते–जाते एक चवन्नी वीनू के हाथ पर रखता गया।
‘‘माँ! बाबू ने मुझे भी....बाबूजी अच्छे थे ना....पर माँ, ये बाबूजी थे कौन? बताओ ना माँ, कौन थे?’’
‘‘तेरे स्वर्गीय पिता के पुराने दोस्त।’’ माँ ने बहाना टिका दिया।
‘‘अच्छा...पर क्या करने आए थे?....माँ, बोलो ना, क्या करने आए थे?’’
माँ झुँझला उठी,’’ मुझे नहीं पता, सिर मत खा!’’
‘‘माँ....पर मुझे पता है , किसलिए आए थे।’’
‘‘किसलिए ?’’ काँप गई माँ।
‘‘तुम्हारे साथ खेलने....है न माँ....जिस तरह मैं लच्छी के घर जाता हूँ...खेलने के लिए।’’ माँ ने सीने से लगा लिया वीनू को।
‘‘पर माँ....मैंने तो लच्छी को कभी नया पैसा भी नहीं दिया। बाबू तो तुम्हें...माँ...माँ! मै यह पच्चीस पैसे लच्छी को दे आऊँ?’’

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