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लघुकथाएँ - संचयन -कमल चोपड़ा
डाका
बारात दरवाजे तक पहुँची ही थी कि लड़के के भाइयों ने आतिशबाजी शुरू कर दी। तीस–तीस रुपए का एक–एक एटम बम्ब......धाय.....धाँय। नशे में धुत्त बारातियों के तेवर देखकर लड़की के पिता ब्रजनाथ जी का पसीना छूट गया और वे हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
उसी गाँव में उसी समय थोड़ी ही दूर सेठ मदन लाल की हवेली पर पहुँचते ही डाकुओं ने दो–चार हवाई फायर किए। सेठ पसीना–पसीना काँपते हुए हाथ जोड़कर खड़े हो गए, ‘‘जो चाहे ले जाओ.... बस हमारी जान बख्श दो।’’ डाकुओंका सरदार चीखा, ‘‘वीरू, चन्दू...राधे.... जल्दी करो, बर्तन-सर्तन जो मिले.... जल्दी करो, गठरियाँ बाँध लो और जल्दी से निकल चलो....’’
गाँव में डाका पड़ने की खबर शादी वाले घर भी पहुँच चुकी थी। बारातियों में भी हड़बड़ी मच गई।
‘‘पंडित जी जल्दी करो.... रघु.... सत्तू... विजय..... जल्दी जल्दी से दहेज का सामान बाँधो.... बर्तन- सर्तन जो कुछ भी है, छिटपुट सभी समेटो.... गठरियों में ही बाँध लो और निकल चलो....’’
उधर डाकू सरदार चीख रहा था, ‘‘सेठ। ! नगदी ,जेवर ,बर्तन अपने आप जल्दी से निकाल दे।’’ और सेठ जी काँपते हुए उनकी आज्ञा का पालन करने लगे।
‘‘बधाई हो ब्रजनाथ जी!...फेरे भी हो गए.... अब जरा जेवर और नगदी भी जल्दी से दीजिए। समय बड़ा खराब है। हमें अँधेरा रहते ही तारों की छाँव में ही निकल पड़ना चाहिए।’’
उधर डाकू सरदार सिंह कह रहा था, ‘‘साथियों ! इससे पहले कि कोई मुसीबत खड़ी हो, हमें सुबह होने से पहले अँधेरे में ही निकल जाना चाहिए......।’’
डाकुओं ने जाते हुए फिर से हवाई फायर किए। उनके जाते ही सेठ जी व उनका लुटा–पिटा परिवार रोने लगा।
डोली चली तो एक बार फिर से बैंड खड़खड़ाने लगा। डोली के जाते ही ब्रजनाथ व उनके घर वाले खाली–खाली घर को देखकर सिसकने लगे। जमा-जोड़ और ‘लक्ष्मी’ सब कुछ चला गया।
थोड़ी ही देर में गाँव में पुलिस आ गई। लेकिन न जाने क्यों पुलिस का एक भी आदमी ब्रजनाथ जी के घर नहीं आया था।

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