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लघुकथाएँ - संचयन - पृथ्वीराज अरोड़ा
कथा नहीं
वह पेशाब करके फिर बातचीत में शामिल हो गया।
दीदी ने कहा, ‘‘पिताजी को बार–बार पेशाब आने की बीमारी है, इनका इलाज क्यों नहीं करवाया?’’
उसने स्थिति को समझा। फिर सहजभाव में बोला, ‘‘मैं अलग मकान में रहता हूँ, मुझे क्या मालूम इन्हें क्या बीमारी है?’’
माँ बीच में बोली, ‘‘तो क्या ढिंढोरा पिटवाते?’’
उसने माँ की बात को नजरअन्दाज करते हुए कहा, ‘‘देखो दीदी, अगर यह बताना नहीं चाहते थे तो खुद ही इलाज करवा लेते।’’ थोड़ा रुककर आगे कहा, ‘‘इन्होंने बहुत सूद पर दे रखे हैं, पैसों की कोई कमी नहीं इन्हें।’’
पिता चिढ़े–से बोले, ‘‘जवान बेटे के होते इस उमर में डॉक्टर के पीछे–पीछे दौड़ता?’’
इस हमले को तल्खी में न झेलकर उसने गहरा व्यंग्य किया, ‘‘आप सुबह–शाम मीलों घूमते हैं, मुझसे अधिक स्वस्थ हैं, फिर डॉक्टर के पास क्यों नहीं जा सकते थे?’’
दीदी ने चौंककर देखा। आनेवाली विस्फोटक स्थिति पर नियंत्रण करने की ग़रज़ से बीच में ही दखल दिया, ‘‘आखिर माँ–बाप भी अपनी संतान से कुछ उम्मीद करते ही हैं।’’
वह अपनी स्थिति को सोचकर दु:खी होकर बोला, ‘‘तुम नहीं जानती कि मेरा हाथ कितना तंग है। ठीक से खाने–पहनने लायक भी नहीं कमा पाता। तुम्हारी शादी के बाद तुम्हें एक बार भी नहीं बुला पाया।’’ आँखों के गिर्द आए पानी को छुपाने के लिए उसने खिड़की से बाहर देखते हुए गम्भीर स्वर में कहा, ‘‘सूद का लालच न करके मुझे कुछ बना देते तो मैं इनकी सेवा लायक न बन जाता!’’
पिताजी ने रुआँसे होकर बताया, ‘‘मेरे दो दाँत खराब हो गए थे, उन्हें निकलावाकर, नए दाँत लगवाए हैं, देखो!’’ उन्होंने दाँत बाहर निकाल दिए।
माँ बार–बार रोने लगी, ‘‘क्या करते हो? तुम्हारा सारा जबड़ा भी बाहर निकल आए तो किसी को क्या? दाँत न रहने पर आदमी ठीक से खा नहीं पाता?’’
दीदी भी रोने लगी, ‘‘दीपक, तुम्हें माँ–बाप पर जरा भी तरस नहीं आता?’’
दीपक का चेहरा बुझते–जलते लट्टू की तरह होने लगा। दु:ख और आक्रोश में वह काँपने लगा। अगले ही क्षण उसने नकली दाँतों का सैट मेज पर रख दिया और सिसकता हुआ गुसलखाने की ओर बढ़ गया....।

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