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लघुकथाएँ - संचयन - पृथ्वीराज अरोड़ा
दया

दसवीं क्लास का हिंदी का अध्यापक, जो अपने सादे रहन–सहन, उच्च आचरण और दयाभाव के लिए स्कूल–भर में विख्यात था, नई क्लास को संबोधित कर रहा था, ‘‘जीवन में सादे रहन–सहन और उच्च आचरण से दयाभाव का महत्त्व कहीं ज्यादा है। असल में जिसमें दया–भाव नहीं है, वह आदमी कहलाने का हकदार नहीं है। राजकुमार गौतम एक दिन घूमते हुए दूर तक निकल गए। एक जगह एक मछुआरा मछलियों को जाल में फाँसकर किनारे पर रखे बर्तन में फेंक रहा था। राजकुमार कुछ पल मछुआरे द्वारा पकड़ी गई मछलियों को, जो पानी में तड़प रही थीं, देखते रहे, फिर मछुआरे से पूछा, ‘इन मछलियों का क्या करोगे?’
मछुआरे ने जवाब दिया, ‘बाजार में बेचूँगा।’
‘कितने की बिक जाएँगी?’
‘यही कोई चार या पाँच रुपए की।’
‘‘राजकुमार ने अपने सोने की अंगूठी मछुआरे को देकर सारी मछलियाँ ले लीं और उन्हें दोबारा पानी में फेंक दिया। राजकुमार के दयाभाव से हमें सीख लेनी चाहिए।’’
एक लड़का उठा।
‘‘कुछ कहना चाहते हो?’’
‘‘हाँ,श्रीमान!’’
‘‘कहो।’’
‘‘मैं एक मछुआरे का बेटा हूँ। मेरा बाप हर रोज़ मछलियाँ पकड़कर बाजार में बेचता है। लगभग हर रोज कुछ मछलियाँ बच जाती हैं और दूसरी सब्जी की जगह मछली ही खानी पड़ती है। जब मछलियों को छीला जाता है तो मेरे मन को कुछ होने लगता है। कल रात मैंने खाना खाने से इन्कार कर दिया। मैंने मछली की बजाय किसी दूसरी सब्जी की माँग की, परन्तु मेरे माँ–बाप ने मेरी प्रार्थना पर कोई ध्यान न दिया और उल्टे डाँट दिया। मैं भूखा ही सो गया। आधी रात को मेरी नींद खुली। मुझे बेहद भूख लगी थी। ऐसा लग रहा था कि अगर मैंने खाना न खाया तो प्राण निकल जाएँगे। मेरे लिए उन मछलियों को खाने के सिवा कोई चारा न था।’’ लड़के का कंठ भारी हो गया अध्यापक की ओर रुआँसी आँखों से देखा।
अध्यापक ने लड़के द्वारा कही गई सच्चाई पर सोचा। फिर अपनी मोटी–मोटी किताबों को बगल में दबाए लड़के के पास आया और उसके कंधे को थपथपाकर कक्षा से बाहर हो गया।

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