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लघुकथाएँ - संचयन - कमलेश भारतीय
मस्तराम जिन्दाबाद
वे बेकार थे और सड़कों से अधिक दफ्तासें के चर लगाते थे। भूखे थे और घर से पैसे आने बंद थे।
एक होटल में पहुँचे और आवाज़ लगाई–मस्तराम को बुलाओ।
मस्तराम हाजि़र हुआ। वहाँ काउण्टर पर सब्जियों से भरे पतीले थे और वे सुबह से भूखे थे, पर ललचाई दृष्टि से देखते तो मस्तराम को शक पड़ जाता। ज़रा रौब से बोले, मस्तराम, हमें एक समारोह करना है। वो सामने वाला हॉल बुक करवा लिया है। लगभग दो सौ आदमियों का खाना....इन्तज़ाम....मतलब खाने–पीने का तुम्हारा रहेगा। ठीक है?
‘‘जी, साहब यह तो आपने कल भी फरमाया था।’’
‘‘अच्छा, आज खाना चेक कराओ, ये हमारे बड़े संयोजकों में से एक हैं। ये तुम्हारा खाना देखेंगे...ठीक?’’
‘‘नहीं, साहब, आप कहीं और इन्तजाम कर लें। मैं रोज़–रोज़ मुफ्त खाना चेक नहीं करवा सकता।’’
‘‘अरे, बेवकूफ, कल ये तुम्हें एडवांस दे जाएँगे। इसलिए दिल्ली से विशेष रूप से आए हैं।’’
‘‘ठीक है साहब लगवाता हूँ ।’’
दोनों ने एक–दूसरे की तरफ़ मुस्करा कर देखा और योजना की सफलता पर आँखों ही आँखों में बधाई दी। डटकर खाना खाया। उठकर चलने से पहले खाने के बारे में अपनी राय बताई कि कल से थोड़ा अच्छा है ;पर उस दिन तुम जानते हो बाहर से लोग आएँगे, काफी अच्छा बनाना। मस्तराम जी साहब, जी साहब करता गया। वे बाहर चले गए और सड़कों पर नारे लगाने लगे–मस्तराम जिंदाबाद !

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