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लघुकथाएँ - संचयन - कमलेश भारतीय
एण्टीना की करामात
वह एक घर था। घर क्या, एक मज़बूत किला था। पास पड़ोस की निगाहों में एक सुनहरा संसार, स्वप्नलोक। घर का हर प्राणी खुश, हर चेहरा खिला–खिला। पिता का सिर गर्व से ऊँचा रहता, छाती तनी। मुहल्ले वाले ईर्ष्या–भरी नज़रों से देखते। किसी एक दिन किले की मज़बूत दीवारें ढह जाएगी–यह किसी को अनुमान तक नहीं था।
उस दिन सब हैरान रह गए, जब किले की मज़बूत छतें फाड़ कर एक–साथ कई एक टी.वी. एण्टीना उग आए। ऐसा लगा जैसे एक साथ झगड़ते हुए सभी भाई सरेआम मुहल्ले में निकल आए हों । पिता किसी भीष्म की तरह एण्टिनाओं के तारों की सेज पर लेटे हुए थे और किला खण्डहर में तबदील हो चुका था। मुहल्ले वालों की ईर्ष्यालु निगाहों में शरारती चमक थी, खुशी थी, जबकि खण्डहर उसी हँसी पर विजय–पताकाओं की तरह टी.वी. एण्टीना बड़ी शान से टिके हुए थे।

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