सिर दुखने का बहाना कर वह लेट गई ताकि अपने बारे में मम्मी-पापा का वार्तालाप सुन सके, उसकी सहेली शादी का कार्ड देने सुबह स्वयं आई थी और उसे पूरी संभावना थी कि मम्मी आज पापा से जरूर कहेंगी, ‘‘सुनते हो? गली वाले शर्मा की बेटी, गैर जात में ब्याह रचा रही है! राम राम!!.....कित्ता खराब जमाना आ गया है? छोरी ने माँ-बाप की इज्जत ही मिट्टी में मिला दी!.....और भेजो कॉलेज पढ़ने? और इतराओ......सिर चढ़ाओ लड़कियों को!! उसकी जगह .....मेरी तनु होती....तो चीर के रख देती.......’’
और तब शायद पापा, बीच में सगर्व घोषणा करेंगे, ‘खबरदार, जो ऐसे कामों में मेरी तनु को घसीटा! उसकी होड़ करेगा कोई? उसे तो बाहर आना-जाना तक पसंद नहीं!....बस, उसकी किताबें और उसका कमरा भला! मज़ाल... कभी किसी छोकरे की ओर नजर भी उठा के देखा हो?....अरे....उसने.....तो....’
उसकी कल्पना को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। उसने सुना, पापा कह रहे थे, ‘‘तनु की सहेली बड़ी लकी निकली। बिना दान-दहेज, खोज-बीन के, सर्विस लगा इत्ता अच्छा लड़का घर बैठे ही हाथ लग गया शर्मा को....’’
और एक लंबी नि:श्वास छोड़ मम्मी ने उत्तर दिया, ‘‘सबकी तकदीर एक-सी थोड़े ही होती है। हमें भी देखो, वर्षों से परेशान हैं, हजारों रुपए....झोंक दिया...फिर भी कहीं......कोई जोग ही नहीं। तनु का भाग्य, वह कहीं आती-जाती भी तो नहीं है।’’
तनु से आगे सुना न गया, लगा, एक तीखी-कटार उसके हृदय को चीरती....जा रही है....और वह अभी चीख पड़ेगी। बिना मतलब.....बस.....यूँ ही।
विकल्प
आखिरी नि’चय कर वह तालाब के किनारे बैठ गया। परिवार में महीनों से कड़की चल रही थी। एम.काWम. होने पर भी उसे छोटी-मोटी किसी तरह की कोई नौकरी नहीं मिल पाई। न किसी ‘बड़े’ से जान-पहचान, न चांदी की खनखनाहट, खाली डिग्री के भरोसे तो पूरे दो वर्ष निकल गए,.....अगले ही माह.....ओवर एज....भी....हो—तब?......वह इंतजार करने लगा.....कब ये धोबी लोग कपड़े समेटें...और...वह छलांग लगाकर हमेशा-हमेशा को....। उन्हें देखकर अचानक उसे एक विकल्प सूझा-क्यों न किसी से, गोदनामें की रस्म अदा करवा के शिड्यूल्ड कास्ट में ही नाम लिखवा लें.....कई जगह सीटें खाली हैं।......और पिघलते इरादे सहित वह खड़ा होकर टहलने लगा।
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