‘‘तू–तू–तूने हमारे बापू का फावड़ा बिना पूछे उठा लिया।...चोर है तू!’’ धनुआ के बेटे ने मुझसे कहा। मैंने उसके पिता की झोंपड़ी के दरवाजे पर रखा फावड़ा उठा लिया था और अपने आँगन में बनी फुलवारी में उग आई थोड़ी–सी घास को खुद ही छीलने लगा था। फावड़ा लेने के लिए पूछने की आवश्यकता थी भी नहीं।
धनुआ हमारे खेतों में मजदूरी किया करता है। उसके पिता और पिता के पिता......और जाने कितनी पीढि़याँ हमारे पूर्वजों के खेतों में इसी तरह मजदूरी करती चली आ रही हैं। उनकी पुश्तैनी झोंपड़ी हमारे आँगन के पास ही लगी है।
‘‘अरे, देता नहीं है तू हमारा फावड़ा। चोर! मैं, दरांती से तेरा हाथ काट दूँगा। अब से हमारी मढ़ैया (झोंपड़ी) से कुछ न उठाना।’’ उस बच्चे ने आगे कहा।
मैं मुस्कराकर रह गया। चार–साढ़े बरस के उस बच्चे को भला क्या डाँटता।
तभी चेहरे पर दीनता के भाव लिये हुए, धनुआ झोंपड़ी से बाहर निकला और एक झापड़ अपने बेटे को लगाता हुआ बोला, ‘‘बाबूजी, यह तो अभी नासमझ बच्चा है। इसकी बात का बुरा न मानिएगा, हुजूर।......आप तो हमारे माई–बाप हैं। अन्नदाता हैं। बड़ा होने पर यह अपने आप समझदार हो जाएगा तो ऐसा नहीं बोलेगा।’’
मैं सोचने लगा कि एक दिन धनुआ को भी उसके बापू ने इसी तरह डाँटा होगा। बड़ा होने पर ये लोग खुद को कितना छोटा मानने को विवश हो जाते हैं।
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