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लघुकथाएँ - संचयन - रूप देवगुण
और वह

एम0 ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वह फूला न समा रहा था। उसे उम्मीद थी कि वह शीघ्र ही नौकरी पा लेगा, किन्तु कुछ ही दिनों में उसे अपने आप पर भी विश्वास न रहा था। उसे लगने लगा था कि वह सदा बेकार रहेगा।
कैसे जीवन व्यतीत करेगा वह?’ यह सोचते ही वह डर जाता था।
एक दिन उसके सामने उसके पिताजी बैठे थे, जिनको सरकारी नौकरी से रिटायर होने में केवल एक मास बाकी था। अचानक उसके मस्तिष्क में एक सोच उभरी–‘अगर पिताजी आज–कल में मर जाएँ तो उसे उसके स्थान पर नौकरी मिल सकती है।’ यह विचार आते ही उसे अपने जीवन की सार्थकता के चि दिखाई देने लगे।
लेकिन वह कुछ आगे सोचता कि अचानक उसक पिता के झुर्रीदार चेहरे में से उसे उसके लिए स्नेह–ममता से परिपूर्ण कष्ट झेलती एक अपनत्व समेटे मूर्ति साकार रूप लेती दिखाई दी।
और वह फफक–फफककर रो उठा।


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