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लघुकथाएँ - संचयन - रूप देवगुण
दूसरा सच

घर के सदस्य कमरे में बैठे गप–शप मार रहे थे। अचानक पड़ोसी जवान लड़के सुजीत का प्रसंग छिड़ गया।
पिता ने कहा, ‘‘कितना अच्छा है सुजीत! हमारे घर के सारे काम–काज सहर्ष कर देता है।’’
माँ बोली, ‘‘कितना भला है सुजीत! कई बार जेब से पैसे लगा देता है और बहुत कहने पर भी वापस नहीं लेता।’’ मुन्ना भी रह न सका, ‘‘सचमुच सुजीत बहुत ही प्यारा है। मुझे कई बार खिलौने भी ला देता है।’’
बड़ी बेटी, जो पास बैठी चुपचाप सारी बातें सुन रही थी, उठकर कमरे से बाहर चली गई। वह जानती थी कि इन सब कामों के बदले में वह उससे बहुत कुछ प्राप्त करने की कोशिश करता रहता है।


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