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लघुकथाएँ - संचयन - प्रमोद राय
बाबू साहब

मोची ने जूते को पहले उलट–पलटकर देखा फिर सिलते हुए बोला, बाबू साहब अब नया खरीद ही लीजिए। कई बार सिल चुका हूँ। प्रताप नारायण सिंह को लगा कि जैसे टांका जूते में नहीं उनके सीने में चुभ रहा हो। यह बात उन्हें उतनी नहीं अखरती अगर मोची उनके गाँव का न होता। वरना कौन ध्यान देता है, इतने बड़े शहर में इन छोटी–छोटी बातों पर। जी में आया उसी जूते से दें दो जूता ;लेकिन शर्म और गुस्से का थूक निग्लते हुए एक बेबस मुस्कान उगल दी। शायद वह डर गए कि नाराज मोची गाँव जाकर पोल खोल देगा कि बाबू साहब दिल्ली सचिवालय में नहीं ,सुलभ शौचालय में दरबानी करते हैं।


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