पहली जंगे -आजादी को 150 वीं वर्षगाँठ पर मेरठ से दिल्ली के लिए रवाना हुई राष्ट्रीय रैली गाजियाबाद पहुँचने ही वाली थी। जिस चौराहे से रैली को गुजरना था, वहाँ स्थानीय लोगों की अच्छी खासी भीड़ जमा थी। चूंकि रैली को वहाँ कुछ देर ठहरना था, इसलिए भारी संख्या में पुलिसकर्मी भी मौजूद थे। देशभर से आए हजारों युवक–युवतियों के विशाल जुलूस की एक झलक पाने के लिए मैं सड़क के किनारे चाय–नाश्ते की एक ढाबानुमा दुकान पर बैठा था। वहाँ पहले से काफी लोग जमा थे, जो रैली पर ही चर्चा कर रहे थे। दुकान का बुजुर्ग मालिक ऑर्डर लेने और पैसे गिनने में मशगूल था। दर्शकों के बहाने ग्राहकों की बढ़ती भीड़ से वह काफी उत्साहित था। बीच–बीच में वह लोगों को बता रहा था कि कैसे अंग्रेजी फौज इसी सड़क से गुजरती थी। कैसे उसने एक अंग्रेज को पत्थर मारा था। कैसे उसके पिताजी जेल गए और कैसे उसके दादाजी शहीद हुए...।
इस बीच, किसी ने अखबार पलटते हुए रैली की बदइंतजामियों की तरफ लोगों का ध्यान खींचा। मेरठ में खाना नहीं मिलने पर रैली में शामिल युवक धरने पर बैठ गए, तो कुछ ने रात्रि शिविरों में बदइंतजामी के खिलाफ मोदीनगर में चक्का जाम कर दिया। एक आदमी ने कहा, अफसरों और ठेकेदारों की तो खूब चाँदी हुई है। खाने के पैकेट, पानी की बोतलों और अन्य चीजों में खूब घपला हुआ है। किसी ने बताया कि स्कूली बच्चे अपने पैसे से खरीदकर खा–पी रहे हैं।
इतना सुनते ही बूढ़े ने फोन पर किसी को ऑर्डर दिया,पचास पेटी बिसलेरी, सौ बोरी वॉटर पउच...पेप्सी...कोला...तुरंत..एकदम अर्जेंट। ऐसा लगा मानों उसके भीतर सोया कोई क्रांतिकारी जग गया हो। फिर उसने भी पुलिस और प्रशासन को दुत्कारना शुरू किया और बताने लगा कि कैसे अंग्रेजी राज आज के मुकाबले सौ गुना बेहतर था। तभी किसी ने आवाज लगाई, रैली, आ गई रैली। हम लोग दुकान से निकलकर सड़क के किनारे खड़े होने लगे। पुलिस के पैट्रोलिंग वाहन गुजरने लगे और दूर से लाउडस्पीकर में गानों और सामूहिक स्वर में नारों की आवाज आने लगी। मुझे अचानक याद आया कि मैं अपना कैप दुकान पर ही भूल आया। मैं उसे लेने दुकान की तरफ भागा और वहाँ देखा कि बूढ़ा दुकानदार रेट–बोर्ड के ऊपर कागज चिपकाकर नए रेट लिख रहा था, पानी की बोतल–15 रु., पाउच 5रु. कोल्ड्रिंक 15रु...। हर चीज का दाम डेढ़ से दोगुना बढ़ गया था।
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