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माँ

रात का गहरा काला अँधेरा आकाश से उतर कर पूरी तरह नीचे आ गया था, पर तेज रफ्तार से अपने गंतव्य की ओर जा रही ट्रेन के यात्री थे कि चारों ओर से बेखबर हो सुख की नींद ले रहे थे।
अचानक ‘धाप’ की आवाज हुई तो सब हड़बड़ा कर उठ बैठे। आसपास आँखें फाड़ कर देखा, आवाज कहाँ से आई? कोई चोर–डकैत तो नहीं आ गया? आशंका से सारी बत्तियाँ जल गई तो सभी की आँखें भी जैसे गुस्से से जल उठी।
ऊपर की बर्थ से एक नन्ही–सा बच्च पता नहीं कैसे नींद के झोंके में नीचे गिर गया था। उसका कोमल शरीर फ़र्श से टकराया, तभी ‘धाप’ की आवाज हुई थी। पता नहीं चोट लगने से या सदमे से बच्चा एकदम शान्त हो गया था पर नीचे चारों ओर शोर मच गया था, ‘‘अरे देखो, मर तो नहीं गया?’’
‘‘अरे, कैसे बेवकूफ औरत है....बच्चे को पीछे सुलाना चाहिए और यह है कि....’’
‘‘गँवार औरत....पालना नहीं आता था तो पैदा क्यों कर लिया?’’
‘‘क्यों री करमजली....बेहोशी में थी क्या....? नन्हें को कुछ हो गया तो यहीं चीर कर फेंक दूँगा।’’
चरों तरफ शोर का एक अजीब से गुबार उठ रहा था पर ऊपर की बर्थ पर अवाक्, गुमसुम सी बैठी बेहद काली, पर मासूम–सी चेहरे वाली षोडसी अपनी गँवई कुर्ती को बार–बार उठा कर बच्चे का सिर सहलाती हुई उसे दूध पिलाने की कोशिश में जुटी थी। इसी कोशिश में दूध की हल्की–सी धार फूटी तो बच्चा कुनमुनाया।
बच्चे की कुनमुनाहट के साथ माँ भी कुनमुनाई,’’ मेरो लाल जि़न्दो है...।’’
थोड़ी देर बाद बच्चा छाती से लग कर दूध पीने लगा तो सबकी नजर बचा कर उसने अपनी गीली आँखें पोंछ ली.....।

 
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