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सोचँ

स्टेशन छोड़ने के दो मिनट बाद ही तूफान मेल ने धीरे–धीरे रफ्तार पकड़ ली थी। सेकेण्ड क्लास यात्रियों से इस खचाखच भरा था कि तिल रखने की भी जगही नहीं बची थी पर पता नहीं कहाँ से एक दर्जन शोहदे उसमें और घुस आए।
कोई लाल कमीज़ और काली पैण्ट पहने था तो कोई सिर पर रुमाल बाँधे था। सभी के मुँह पान चबाने से लाल थे। ट्रेन रफ़्तार पकड़ चुकी थी। लोग चुपचाप बैठे थे कि तभी उन्होंने अकारण ही रोब गाँठना शुरू कर दिया,’’ एई, हट यहाँ से...यहाँ हम बैठेंगे....।’’
‘‘चल, नीचे बैठ जा बेटे....ऊपर बादशाहों को लेटने दे....’’ और भी तरह–तरह के फिकरे। उनकी रूपरेखा से डर कर कुछ यात्री पहल ही सीट छोड़ चुके थे और जो नहीं छोड़े थे, उन्हें भी मजबूरी में छोड़ना पड़ा।
सब शोहदे जब आराम से बैठ गए तो लगे आपस में चुहल करने। इसी बीच उनकी निगाह सामने बैठी षोडशी पर पड़ी तो वे उधर ही लपक लिए और फिर सब एक साथ ही अश्लील हरकतें करने लगे। लड़की डर कर सहायता के लिए चीखने लगी पर डर के मारे कोई भी नहीं बोला।
उस भीड़ में हरिहर बाबू भी थे अपने परिवार के साथ। उनकी दो बेटियाँ...जवान कि तभी हरिहर बाबू का बेटा यह सोच कर उठ खड़ा हुआ कि अगर उस जगह उसके पिता और बहनें होती तो भी क्या वह चुप रहता?
वह उस लड़की के लिए आगे बढ़ता कि तभी हरिहर बाबू ने सख्ती से उसका हाथ पकड़ लिया,’’ चुपचाप बैठ जाओ....दूसरों के चक्कर में पड़ कर अपनी जान खतरे में डालने की कोई जरूरत नहीं।’’
‘‘पर बाबूजी....’’
‘‘मैंने कहा न...बैठ जाओ...’’ उनकी आवाज़ और सख्त हो गई तो बेटा चुपचाप बैठ गया। फिर थोड़ी देर में अगला स्टेशन आने ही वाला पर यह क्या....? उस लड़की से जी भर जाने पर उन शोहदों की नजर हरिहर बाबू की खूबसूरत लड़कियों पर पड़ गई।
थोड़ी देर बाद ट्रेन का वह खचाखच भरा डिब्बा एक खाली कमरे की तरह उनकी बेटियों और जवान बेटे की चीख से गूँज उठा...। एक घायल पक्षी की तरह हरिहर बाबू और उनकी पत्नी सहायता के लिए फड़फड़ा उठे पर आगे कोई नहीं आया....।
आदमियों से भरे उस डिब्बे के हर आदमी के दिमाग में उस समय हरिहर बाबू की सोच भरी थी।

 
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