सुबह पांच बजे का समय। वह सिर झुकाए सेंट्रल जेल की काल कोठरी के आगे बैठा था। कोई पैंतीस–छतीस साल का लंबी कद–काठी का गोरा–चिट्टा युवक। उसके उदास चेहरे पर मौत की छाया तैरती स्पष्ट दिखाई दे रही थी। बीस–पच्चीस मिनट बाद उसे वहाँ फाँसी दी जाने वाली थी। बतौर मजिस्ट्रेट फाँसी देखने का मेरा यह पहला ही अवसर था।
‘‘भाई साहब माफ करना। इस वक्त आपसे कोई सवाल करना मुनासिब तो नहीं है, फिर भी यदि बुरा न मानें तो क्या आप बतलाएँगे कि आपके खिलाफ जो फाँसी का फैसला हुआ वह सही है या नहीं?’’ झिझकते हुए मैंने उससे पूछा।
‘‘रब करदा है सो ठीक ही करदा है।’’ उसने कुछ क्षण बाद एक लंबी आह भर आकाश की ओर देखते हुए कहा।
‘‘यानी कि सुपारी लेकर दो आदमियों की हत्या करने का आरोप आप पर सही लगा था?’’ मैंने उससे खुलासा जवाब की अपेक्षा की।
‘‘की करना है, साबजी, कहा न, रब करदा है सो ठीक ही करदा है।’’ उसने मुझ पर एक उदास दार्शनिक दृष्टि डालते हुए वही बात दोहराई।
मेरी उत्सुकता अभी भी शांत नहीं हुई थी।
‘‘रब वाली आपकी बात तो सही है। फिर भी नीचे सेशन कोर्ट से राष्ट्रपति तक जो आपके खिलाफ फैसला हुआ है, वह तो सही है न।’’ फिर भी मैं जिद कर बैठा।
‘‘फैसले की बात छोड़ो साब। वह तो बिलकुल गलत हुआ है। मैंने उन बंदों को नहीं मारा। न उनके लिए कोई सुपारी ली। हाँ वे बन्दे हमारी आपसी गैंगवार की क्रास फायरिंग में जरूर मारे गए थे। लेकिन मेरे दुश्मनों ने मेरे खिलाफ झूठी गवाही देकर मुझे फँसा दिया।’’ अचानक वह झल्ला उठा। लेकिन उसके इस खुलासे से हम सभी स्तब्ध थे।
‘‘फिर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि रब करदा है सो ठीक ही करदा है।’’ अब मुझसे यह पूछे बिना नहीं रहा गया।
‘‘इससे पहले मैंने सुपारी लेकर चार कत्ल किए थे और उन सब मुकदमों में बरी हो गया था।’’ उसने बेझिझक स्वीकार किया।