‘‘अब तू क्या टाबर है? दो बच्चों का बाप हो गया है। कब आवेगी तेरे में दुनियादारी।’’ ताऊजी?’’ मैंने डरते–डरते पूछा।
‘‘क्या होना है, रे! उस दिन तो पता नहीं कौन बीमार पड़ गया था। उसकी तीमारदारी में खुद बरसात में भींग गया। सप्ताह भर बुखार में पड़ा रहा।’’
‘‘आज देख क्या करके आया है। सुबह दस बजे भेजा था इसे बिल्टी देकर माल छुड़ाने को। और अब शाम पड़े खोटे सिक्के की तरह वापिस आया है, वह भी डेमूरेज लगाकर। रास्ते में एक्सीडेंट में घायल आदमी को अस्पताल पहुँचाने के लिए पूरे शहर में क्या यही अकेला बचा था? ऊपर से पता नहीं किसको अपना खून देकर आया है। डफोल (मूर्ख) कहीं का!’’
ताऊ की इस झिड़की को सुन कर मन ही मन मुझे अपने भतीजे के ‘डफोलपन’ पर गर्व हो रहा था।