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लघुकथाएँ - संचयन - एन.उन्नी
कबूतरों से भी खतरा है

मेरे पिताजी ने भी कबूतर पाले थे। कबूतर पालना उनके िएल टाइम पास करने का साधन नहीं था। वे सचमुच कबूतरों से प्यार करते थे। उनको नहलाना–धुलाना, समय–समय पर दाना चुगाना, उनसे बातें करना आदि कार्यों में पिताजी समर्पित थे। पिताजी के चारों तरफ कबूतर नृत्य करते थे। धीरे–धीरे ऊपर उड़कर पिताजी को हवा देते थे।
एक दिन ऊपर उड़ा कबूतर घर के ऊपर चक्कर लगाकर कहीं उड़ गया। पिताजी ने कबूतर की बोली बोलकर घर के चारों तरफ चक्कर काटे, लेकिन कबूतर देखने को नहीं मिला। पिताजी पागल–से हो गए। खाना नहीं खाया और रात–भर सोए भी नहीं। दूसरे दिन सुवबह बेचैनी से पिताजी फिर मुहल्ले के चक्कर काटने लगे। थके–भूखे कबतर जी वापस घर लौटे। पिताजी खुश तो थे, लेकिन इस खुशी में एक अस्पष्ट क्रूरता भी निहित थी। पिताजी ने उस कबूतर के पंख काट दिए। उसके लिए एक जीवन–साथी को भी लेकर आए थे, लेकिन फिर कभी पिताजी और कबूतरों का संबंध उतना मधुर नहीं रहा।
कबूतर बच्चे देने लगे। बच्चे बड़े होने लगे। बच्चे धीरे–धीरे उड़ने लगे। एक दिन पिताजी के सामने बच्चे उड़ने लगे तो बड़े कबूतर ने उन्हें क्रोध से देखा, मगर वह कुछ बोला नहीं, क्योंकि कबूतर को मालूम था कि उसकी भाषा पिताजी समझने लगे हैं। पिताजी भी कबूतर के व्यवहार से सावधान हो गए। शाम को कबूतरों को पिंजरे में बंद करके पिताजी बेचैन हो रहे थे। वे पिंजरे के बाहर एक कुशल जासूस की तरह निश्छल खड़े अन्दर की बातचीत ध्यान से सुन रहे थे। पिताजी के चेहरे के हाव–भावों से मुझे लगा कि कोई गंभीर बात हो रही है।
बड़ा कबूतर बच्चों की सावधान कर रहा था–
‘बेटे, तुम उस आदमी के सामने कभी भी उ़ड़ने का प्रयास मत करना। वह तुम्हारे पंख काट देगा। तुम्हें मालूम हैं, बाहर की दुनिया कितनी सुंदर और असीम है। एक बार मैंने भी देखा था। अनंत विशाल, रंग–बिरंगे आकाश में मैं खो गया था। लौटकर आने की इच्छा मुझे कतई नहीं थी, लेकिन भूख और प्यास के कारण मुझे लौटना पड़ा। बाहर से दाना–पानी जुटाने की जानकारी मुझे उस समय नहीं थी, लेकिन बाद में मालूम पड़ा कि बाहर की आजाद दुनिया में हमजातों का झुण्ड है। उनके साथ मिलकर मैं भी भूख और प्यास से जूझ सकता था.....।’’
पिता–कबूतर की व्यथा को देखकर बच्चे ने कहा, ‘‘अब मेरा क्या? तुम्हारे बड़े होने का इन्तजार कर रहा था मैं....अब हम साथ उड़ेंगे। अपनी जैसी कमजोरियों से तुम्हें बचाना भी है।’’
मुझे लगा कि पिताजी भयभीत हो उठे हैं। रात को दो–तीन बार पिताजी बिस्तर छोड़कर बाहर चले गए थे। दूसरे दिन सुबह होते ही पिताजी ने पिंजरा खोला और सभी कबूतरों को आकाश में उड़ा दिया तो मैंने पिताजी से पूछा, ‘‘आपने यह क्या किया पिताजी? आपने कबूतरों को क्यों उड़ा दिया?’’
पिताजी ने बोझिल स्वर में कहा, ‘‘बेटे, जब प्रजा आजादी की तीव्र इच्छा से जाग उठती है तो बड़े से बड़ा तानाशाह भी घुटने टेकने को मजबूर हो जाता है। फिर तुम्हारा पिता तो...’’
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