पड़वा का पर्व था। सभी जानवरों को अच्छी तरह रंगे हुए देखकर संतुष्ट ठाकुर गुरुदयाल को लगा कि बंधुआ मजदूरों को भी आज कुछ रियायत देनी चाहिए। ठाकुर के अधीन तीस–चालीस बन्धक मजदूर थे। ठाकुर ने मजदूरों के मुखिया को बुलाकर कुछ रुपए दिए और कहा, ‘‘आज तुम लोगों की छुी। घूम–फिर आओ। एक–एक धोती भी सबको दिला देना।’’
पहले तो ठाकुर की बातें मुखिया को अविश्वसनीय लगीं। बाद में याद आया कि आज जानवरों का त्यौहार जो हैं मुखिया ने मजदूरों को एकत्रित किया और सुखद समाचार सुनाया; लेकिन छुी कैसे मनाएँ? यह किसी को भी नहीं सूझा। आखिर मुखिया ने सुझाया कि ‘‘चलो शहर चलते हैं, वहाँ सर्कस चल रहा है।’’
वे सर्कस देखने चले गए।
सर्कस सबको अच्छा लगा, लेकिन काफी मनोरंजक होने के बावजूद लौटते समय वे बहुत गम्भीर थे। हाथियों का क्रिकेट, गणपति की मुद्रा में स्टूल पर बैठे हाथी, रस्सी पर एक पहिए वाली साइकिलों पर लड़कियों की सवारी आदि मनमोहक नृत्यों के बारे में वे कतई नहीं सोच सके। सबके मन में उस शेर का चित्र था,जिसने पिंजरे से बाहर लाया जाते ही गुर्राना शुरू कर दिया था। हण्टर लिए सामने खड़े आदमी की परवाह वह कतई नहीं कर रहा था। उल्टे हण्टरवाला स्वयं काँप् रहा था। दोबारा जब पिंजरे में जाने से शेर ने इन्कार कर दिया, तब उसको पिंजरे में डालने के लिए सर्कस की पूरी टुकड़ी को आपातकाल की घण्टी से इकट्ठा करना पड़ा था।
एक पल के लिए बंधक मजदूरों को लगा कि गुर्रानेवाला शेर वे स्वयं हैं और सामने हण्टर लिए वहाँ ठाकुर गुरुदयाल खड़ा है। पिंजरे में हो या बाहर, गुलामी आखिर गुलामी ही होती है। वे आत्मालोचन करते हुए सोचने लगे कि जानवर अकेला है। उसमें सोचने की शक्ति नहीं है। अपनी ताकत का अन्दाज भी उसे नहीं है। फिर भी, गुलामी से कितनी नफरत करता है! आजादी को कितना चाहता है! और हम? एकाएक वे आत्मग्लानि से भर उठे?’’
न जाने क्यों, मुखिया को उनकी यह चुप्पी कुछ खतरनाक लगी। उद्वेगपूर्वक उसने पूछा, ‘‘क्यों रे, तुम लोग चुप क्यों हो?’’
तब अचानक सब–के–सब बोल उठे, ‘‘मुखियाजी, हमें वह सर्कस फिर से देखना है, आज ही!’’
हण्टरवाले पर गुर्रानेवाले बब्बर शेर की कल्पना तब तक उन लोगों के मन में घर कर गई थी।
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