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जूते और कालीन

‘‘जब भी वे कालीन देखते हैं तो कोफ्त से भर जाते हैं। कालीन बुने जाने के उन कसैले दिनों की याद में । कुछ आँसू पी जाते हैं और गम खा लेते हैं। ’’
‘‘क्यों भला, हमने उनका क्या बिगाड़ा ?’’
‘‘यह कालीन जो आपने अपनी बिरादरी के चंद लोगों की कदमखोरी के लिए बिछाया है, उसके रेशे–रेशे में पल–पल के कई अफसोस भी बुने हुए हैं, जिसे आप नहीं जानते।’’
‘‘हमने दाम चुका दिए। उसके बाद हम चाहे जो करें कालीन का।’’ उन्होंने कहा।
‘‘नहीं श्रीमान्, दाम चीजों के हो सकते हैं, लेकिन कुछ कलात्मक बुनावटें बड़े जतन से बनती हैं। उसके लिए हुनर लगता है। धैर्य लगता है। परिश्रम लगता है। दाम चुकाने के बाद भी उनकी कद्र करनी होती है, क्योंकि उसकी रचना के पीछे एक खास कलात्मकता काम कर रही होती है।’’
‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’
‘‘आप जानते हैं कि इस कालीन के रेशे–रेशे मे नन्हीं लड़कियों की हथेलियों की कोमलता भी छिपी है। स्त्रियों की हथेलियों के वे तमाम गर्म स्पर्श, जिनसे भरी ठंड में उनके बच्चे वंचित रह गए। इसके कसीदे देखिए श्रीमान्, ये सुंदर–सलोने कसीदे, जो आपको क्षितिज के पार सपनों की दुनिया मे ले चलने का मन बना लेते हैं, उन कसीदों के लिए उन लोगों ने आपनी आँखें गड़ाईं रात–रात, मन मारा जिनके लिए। उन्हें क्या मिला मजूरी में, सिर्फ़ रोटी ही तो खाई, लेकिन अपना आसमान निगल गए।’’
‘‘कुछ पैसे और ले लो यार, लेकिन इतनी गहराई से कौन सोचता है!’’ वह बोले।
‘‘बात पैसों की नहीं है। उन लोगों की तो बस इतनी गुजारिश भर है कि जिस कालीन को बुनने के लिए उन लोगों ने क्या–क्या नहीं बिछा दिया, उस पर पैर तो रख लें। लेकिन जूते नहीं रखे श्रीमान्!’
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