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खुलता बंद घर

कोई खास बात नहीं थी। चाबी गिर पड़ी थी। चारों तरफ अँधेरा था और अँधेरे में चाबी ढूँढनाकितना मुश्किल काम है! जहाँ चाबी के गिरने की आवाज हुई, वहाँ घंटों खड़ा रहता आया हूँ। आज भी घर के दरवाजे पर मैं अकेला खड़ा सोच रहा था कि चाबी नहीं मिली तो ताला कैसे खुलेगा और मैं घर में दाखिल कैसे हो पाऊँगा? मुझे रात कहीं बाहर गुजारनी होगी या फिर इसी सहन में।
मैं अंदाजे से जमीन पर हाथ फिरा रहा था, चाबी मिल जाए शायद। चाबी तो नहीं मिली, टूटी चूड़ी का एक टुकड़ा मिल गया, जिससे मुझे पत्नी के हाथों की तब की खनखनाहट याद आ गई, जब वह नई–नई आई थी। अब वह यदाकदा ही चूडि़याँ पहनती है। स्मृतिपटल के एक गवाक्ष का ताला खुला।
हथेली में चुभे काँच के खून की बूँद निकल आई। सड़क की मद्धिम रोशनी में मैंने देखा तो पत्नी के चेहरे की छोटी–सी बिंदी की तरह लगी खून की वह बूँद, जिसे देखकर पता नहीं मै। कहाँ खो गया, जबकि मुझे ढूँढनी चाबी है।
अगली बार कागज का टुकड़ा मिला। मैंने उजालेकी तरफ जाकर देखा तो उस कागज पर बच्चे की मँगाई नई किताब का नाम लिखा था।
वहीं दरवाजे के बाजू वाले पैसेज में रिबन की एक चिंदी मिली, मानो उस रिबन में झाँकते हुए बेटी पूछ रही हो, ‘‘पापा, नया रिबन लाए क्या?’’
घर, जो घर के भीतर नहीं पाया मैंने, वही घर दरवाजे के आसपास बिखरा पड़ा था। चाबी मिल नहीं रही थी, लेकिन पर खुलता जा रहा था।

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