आखिरकार माँ को मेरी फटी। निकर पर तरस आ ही गया। उसमें पीछे बनी दो आँखें अब जबड़ों की तरह फैल गई थीं। माँ ने उसे पिछवाड़े गली में फेंक दिया।
उस फटी निकर से मुझे भी लगाव था। दरअसल यह लगाव उस निकर की दोनों बड़ी जेबों की वजह से था, जिनमें ढेर सारे कंचे समा जाते। मैं जब शाम ढलने के बाद सीढि़यों चढ़कर घर में दाखिल होता तो माँ जेब में बज रहे कंचों से पहचान जाती कि मैं आ रहा हूँ। उन दिनों मेरी और कोई पहचान नहीं थी। मेरे भागने से पता चल जाता कि मैं खेलने जा रहा हूँ। सीढि़याँ चढ़ते वक्त माँ जेब में हिलते कंचों की आवाज से जान जाती कि मैं आज हारकर आ रहा हूँ या जीतकर, लेकिन यह सब उस फटी निकर की बड़ी जेबों की वजह से था। अब वह निकर, उसकी जेबें, पता नहीं किस वीराने में खामोंश पड़ी होंगी।
एक दिन मैं अपनी नई निकर पहने बाजार गया हुआ था। सड़क किनारे की झुग्गी–बस्ती से गुजरते हुए मैंने देखा कि एक कचरा बीनने वाली बीनकर लाए गए कबाड़ को छांट रही है। कपड़े–कपड़े अलग, प्लास्टिक अलग, कांच की शीशियाँ अलग। उसने उ कूड़े के ढेर से एक फटी निकर निकाली। मैं चौंक पड़ा। अरे, यह तो मेरी निकर ही है, जिसे माँ ने गली में ॅफेंक दिया था। वैसा ही रंग, वैसा ही जबड़ेनुमा पीछे फटी हुई। उसने निकर पर कपड़े का जोड़ लगा तुरपाई कर पास खड़े अधंनंगे बच्चे को पहना दी। वह बच्चा निकर पहनकर खुशी से उछल पड़ा। उसने जेब में कंचे भरे और उछलते–कूदते चिल्लाता हुआ निकल पड़ा। मैं उसकी जेब में बज रहे कंचों की आवाज तब तक सुनता रहा, जब तक कि वह मेरी नजरों से ओझल न हो गया।
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