सूरज की पहली किरण के साथ वह गली में आ गया था। तब से अब तक वह चलता ही आ रहा था। सूरज डूबने को था। थकान के कारण पहले तो उसने कमजोरी अनुभव की थी। फिर उसे अपना शरीर काँपता-सा प्रतीत हुआ था। उस समय सूरज काफी ऊपर था। उसकी किरणों में गर्मी थी। इस समय जबकि सूरज को ओझल हुए घंटा होने को था, उसने जाड़े की उस ठंड को अपने भीतर तक पहुँचाते हुए महसूस किया।
वह कोट भी इस समय उस पर नहीं था, जो किसी के ऊपर तंग हो जाने के कारण उसे मिला था। उसे याद आया, उस पुराने कोट को उस दिन फुटपाथ पर से किसी ने उठा लिया था या चुरा लिया था। वह उसके देश का कोई बड़ा-सा दिन था। किसी मंत्री का जन्मदिन रहा होगा। उसे याद है, वह आम छुट्टी का दिन था। उसे कहीं से एक घुड़की मिल गयी थी और हलके नशे में वह बड़ौदा बैंक की सीढ़ियों पर सो गया था।
ठंड जब उसकी हड्डियों तक पहुँच गयी, तब उसे ज्ञात हुआ था कि उसका अपना शरीर गर्म था, उसे बुखार था। बड़ा अजीब था। बड़ी अजीब बात थी कि यह शरीर गरम हो और आदमी को ठंड लगे। देश प्रगति के पथ पर हो और आदमी भूखा फिरे। खैर, उस धुँधली शाम में वह आगे ही बढ़ता रहा। अब भी उसे उम्मीद बनी हुई थी। भीड़ से खचाखच भरी गलियों में उसे कोई भी पर्यटक नहीं मिला, जिससे उसे कुछ मिल जाता।
इस वक्त वह एक सुनसान गली में आ गया था। मोड़ पर बिजली-बत्ती के ज्योतिहीन खंभे के पास उसने किसी की आकृति देखी। उम्मीद हुई, एक कप गरम चाय के लिए कुछ मिल जाने की। वह झपटा। आदमी के पास पहुँचकर उसने हाथ फैला दिया। इतने में वह आदमी भी उसकी ओर मुड़ पड़ा था। उसका अपना हाथ फैला का फैला रह गया। मुड़ते ही उस आदमी के मुँह से निकला था, ‘‘भैया, एक पैसा दे दो। बहुत जोर की ठंड है, एक सिगरेट ही सही।’’
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