कटाई के मौसम में काम कुछ सवेरे समाप्त हो जाता है। घर पर की दोनों बकरियों के लिस घास जुटाते हुए मुझे कुछ देर हो गयी थी। धूप अब भी हड्डियों के भीतर तक चुभ रही थी और पगडंडी बहुत अधिक लंबी प्रतीत हो रही थी।
रास्ते के दोनों ओर के गन्ने काटे जा रहे थे। सिर पर घास का बोझ लिये मैं जल्दी घर पहुँचना चाह रहा था। दूसरे दिन हमारा स्वतंत्रता दिवस था। गाँव की ओर से सांस्कृतिक कार्यक्रम की जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी। पाठशाला के छात्र मेरी प्रतीक्षा कर रहें होंगे।
मैंने अपनी रफ्तार तेज की।
निकोले साहब की कोठी से होकर बस्ती में पहुँचना था। ईख के खेतों के बीच में निकोले साहब के तरबूज के लहलहाते खेत थे।
मैं मोड़ पर पहुँचा ही था कि निकोले साहब का दामाद बरगद की आड़ से निकलकर मेरे सामने आ गया। उसकी तनी हुई बंदूक को देखकर मुझे हैरानी हुई। मैं कुछ पूछता कि इससे पहले उसने कड़ककर कहा।
‘‘तो आज तुम पकड़े गए। नीचे गिराओ अपने बोझ को।’’
मेरी हैरानी और भी बढ़ गई, मैंने धीरे से पूछा, ‘‘क्या बात है साहब ?’’ अपने लाल हो चले गोरे चेहरे से पसीने को पोंछते हुए उसने कहा, ‘‘बोझ नीचे फेंको और साथ चलो।’’
‘‘पर कहाँ और क्यों ?’’ साहस के साथ मैंने पूछा।
‘‘तीन दिन से तुम रोज तरबूज चुराते आ रहे हो।’’
‘‘साहब, मेरे सिर पर घास है, तरबूज नहीं।’’
‘‘मैं सामने नहीं आता तो अब तक तुम्हारी घास के भीतर तरबूज पहुँच ही जाते।’’
‘‘आपको गलतफहमी हुई है। मैं अपने गाँव की बैठक का प्रधान हूँ।’’
‘‘बंद करो! बडे़ साहब के सामने अपनी सफाई पेश कर देना।’’
‘‘लेकिन साहब मैंने तरबूज नहीं चुराया। आप चोर पहचानने में भूल कर रहे हैं।’’
‘‘सरदार ने चोर का जो हुलिया बताया है, वह तुमसे एकदम मिलता है।’’
तर्क करके अपने आपको को बचाना कठिन था, इसलिए मैं बंदूक की नली के आगे-आगे चल पड़ा।
हुलिया एकदम मिलने का मतलब था--रंग।