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भय की खोज

भय? भय क्या हैं? कैसा होता है?
ये प्रश्न वह अपने आपसे पूछता और लोगों से भी। कुछ लोग सचमुच ही उसे भोला जान उसके हाथों में वेम्पायर, ड्राकूला, फ्रांकेइंस्टन की पुस्तकें रख देते। वह उन्हें पढ़ता और उनमें कहीं भी नामक कोई चीज न पाकर वह उसे ढूँढने आधी-आधी रात खण्डहरों और श्मशानों की ओर दौड़ जाता। वही निराशा उन स्थानों पर भी होती।
एक दिन वह पो के शब्दों में खोकर भूत और डर को अपने ही मस्तिष्क के अँधेरे कमरों में ढूँढ़ता रहा, पर कहीं भी भय का नामोनिशान न मिला।
वह चित्रकार था। वह प्रायः सभी क्रिया-प्रतिक्रियाओं को अपने कैन्वास पर ला चुका था। कमी थी तो केवल भय की। वह इस कमी की पूर्ति के लिए बावला था। मुड़िया पहाड़ के नीचे एक बस्ती में एक छोटा-सा घर था। उस घर के कारण लोग पूरी बस्ती को भूतिया-खाड़ी कहते थे। बहुत से लोग उस बस्ती को छोड़कर चले गये थे और बहुत से लोग वहाँ की चीजों के आदी होकर अब भी वहाँ रह रहे थे। सभी घरों से अलग उस घर को गाँव वाले भूतों का डेरा बताते थे। कहा जाता था कि उस घर में अठारह वर्ष की एक जवान लड़की ने फाँसी लगा कर आत्महत्या कर ली थी। लोग यह भी कहते कि उस घर में भय का निवास है। यही कारण था कि वह अपनी चित्रपटी और रंग-तूलिकाएं लिये उस वीरान घर में जा पहुँचा था।
उसे यह भी सुनने को मिला था कि इस घर से लोग आधी रात को भागे हैं। किरोसीन लैम्प की क्षीण ज्योति में वह अपने हाथ में तूलिका और रंगों का पालेत लिये इजल के सामने खड़ा रहा।
वह जानता था कि इस घर की चारदीवारी में वह भय को जरूर देख सकेगा और उसका चित्र बनाकर ही रहेगा। दीया धूमिल प्रकाश के साथ जलता रहा। बाहर से हवा की साँय-साँय आवाज आती रही। बाहर शायद वर्षा हो रही थी।
वह इजल के सामने खड़ा भय के आने की प्रतीक्षा करता रहा। ठीक सामने दीवार पर धूमिल शीशा था। रात बीतती गयी।
रात बीतती गयी और बीत कर रही।
सुबह कुछ लोगों ने दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश किया। फर्श पर कलाकार का शव पड़ा था और कैनवास पर था-उसका अपना ही चेहरा, भय की अमर कृति।
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