मैंने गम्भीर मुखमुद्रा में बैठे पिताजी पर एक नजर डाली। उनके मुँह पर चिन्ता की रेखाएँ देखकर माँ भी घबरा रही थीं और मेरी तरफ देखे जा रही थीं, मानो कहना चाहती हों कि तू ही कुछ पूछ न अपने पिताजी से। मैं भी माँ की तरह पिताजी के तेवर से वाकिफ था; इसलिए उनसे कोई बात करने से घबरा रहा था। फिर भी हिम्मत करके पूछ ही लिया, ‘‘आखिर बात क्या है पिताजी?’’
मेरी बातों पर जैसे पिताजी चौंक-से गए। षायद मेरे सवाल पर अपने हृदय में उठे उद्वेलन को दबाने की कोषिश कर रहे थे, पर विचारों के ऊहापोह में उलझज्ञ मन कोई इतनी जलदी थोड़े ही संभाल पाता है। मालूम नहीं, पिताजी के मुख से किसतरह इतनी-सी बात निकल गई, ‘‘गंगा बहुत तेजी से बढ़ रही है....’’
पिताजी के इन अधूरे वाक्यों के साथ ही सामने वाले कमरे के दरवाजे पर किसी की परछाई उभरी थी। मैं समझ गया कि पर परछाई गंगा की होगी। घर में अन्य लोग तो थे नहीं, सभी बड़े भैया के साथ सिनेमा गए हुए थे। पिताजी की अधूरी बातों पर बजाय मेरे कहने के माँ जल्दी से बोल उठी, ‘‘गंगा के लिए लड़का तो तलाश किया ही जा रहा है, फिर भी आप इतने चिन्तित क्यों हैं?’’
माँ की बात सही थी। फिर भी, पिताजी के झुर्री भरे चेहरे से चिन्ता की रेखाएँ हटी नहीं, धुंधली आँखों में थोड़ी धुँधलाहट और महसूस होने लगी थी। वे बोले, ‘‘लड़का तलाश तो किया जा रहा है, लेकिन अब तक दो-चार लड़के वाले गंगा को देखकर जा नहीं चुके हैं, इस बात का बहाना बनाकर कि लड़की आई0ए0बी0 ए0 नहीं है। लड़की पढ़ी-लिखी रहती तो कोई बात भी थी। आजकल लड़के को तो नौकरी मिलती नहीं, लड़कियों को नौकरी दिलवाने की कोषिश की जाए तो मिल भी जाती है, किसी न किसी तरह।’’
पिताजी ठीक कह रहे थे। गंगा को देखने भी लड़के वाले आए थे, उन्होंने यही राग अलापा था कि हमें लड़की पढ़ी-लिखी चाहिए, जिससे वह कहीं कुछ किसी तरह कमा-धमा सके। कुछ दिनों बाद लड़के वाले सिर्फ नौकरी वाली लड़कियाँ तलाश करेंगे। लड़के वालों की ओर से मिलने वाली इस मुष्किल से माँ भी चिन्तित हो गई थी। इसके बाद कमरे के दरवाजे पर से गंगा की परछाई धीरे-धीरे गायब हो गई थीं। मैं चुपचाप ‘रोजगार समाचार’ के पन्ने उलटने-पुलटने लगा था।
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