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लघुकथाएँ - संचयन - शहंशाह आलम
जागा हुआ इंसान

आज मैं देर-रात घर लौटा। मेरे लिए खिचड़ी रखी हुई थी। झोंपड़ी में माँ नहीं थी.......सनीचरी का बिस्तर भी खाली था।
मैं खिचड़ी खाकर सो गया। ऐसा रोज होता है। माँ और सनीचरी रात को कहीं चली जाती थीं। मुझको माँ और सनीचरी ने आज तक कुछ भी नहीं बताया था। घर में और कोई न था। पिताजी कोयला-खान में मजदूर थे। अब वे भी नहीं रहे। कोयला-खान में मुझे नौकरी नहीं मिली। माँ और सनीचरी, कोयला-खान के बाबुओं को पटाकर कुछ कोयला ले आतीं और बेच देतीं। इसी से हमारे दिन गुजर रहे थे।
सुबह सनीचरी ने ही मुझे उठाया।
‘‘भैया, भोर हो गया है। तुम्हें षायद मजदूर-संघ जाना था।’’
‘‘हाँ, जाना है।’’ मैं बिस्तर से उठता हुआ बोला, ‘‘कटीमना चाचा ने बुलाया है। उन्होंने वायदा किया है कि वे मजदूर-संघ के कार्यकर्ताओं को लेकर कोयला-खान के साहब के पास जाएँगे। मुमकिन है, उनके प्रयास से कोयला-खान में मुझे नौकरी मिल ही जाए।
‘‘भैया! तुम जरूर जाओ। तुम्हारी नौकरी हो गई तो हमारी मुश्किलें दूर हो जाएँगी।’’इतना कहकर वह कहीं खो गई थी।
मैं चुपचाप मजदूर-संघ जाने की तैयारी करने लगा।
मजूदर-संघ से मेरा जल्दी ही लौट आना हुआ। कटीमना चाचा कहीं चले गए थे। मैंने झोपड़ी में जैसे ही प्रवेश किया तो देखा सनीचरी कै कर रही है। माँ उसे देख-देखकर रोए जा रही थी।
‘‘क्या बात है माँ?’
‘‘हमारी मजदूरी की सजा सनीचरी अब अकेली ही भुगतने वाली है....’’
मैं समझ गया कि माँ किस सजा की बात कर रही है। अब मैं यह भी जान गया था कि माँ और सनीचरी रात-रात भर कहाँ गायब रहती है। और कोयला-खान के बाबू माँ और सनीचरी को मुफ्त में कोयला क्यों देते हैं?
‘‘ माँ! मैं सनीचरी को दो-चार दिनों में ही किसी लेडी डॉक्टर के पास ले जाऊँगा। सब-कुछ ठीक हो जाएगा।’’
इतना कहकर मैं कोयला-खान के ऑफिस की तरफ बढ़ता चला गया। मुझे विश्वास था कि अब मैं मजदूर-संघ की मदद के बिना भी कोयला-खान में नौकरी पा लूँगा। हक की लड़ाई लड़ने की हिम्मत मुझमें आ गई थी। इंसान के जाग जाने के बाद ही षायद यह हिम्मत आती है, यह मैंने अब समझ लिया है।
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