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लघुकथाएँ - संचयन - शहंशाह आलम
तानाशाह

फिरोज, जमाल और षाहीन तीनों दोस्त थे और एक खेल, खेल रहे थे। षाहीन किसी जमींदार का रोल अदा कर रहा था, ‘‘जमाल! तुमने हमारी बातें नहीं मानीं, इसलिए तुम्हें सौ कोड़े लगाने की सजा दी जाती है।’’
‘‘माई-बाप! मैं बहुत गरीब आदमी हूँ। फाकापरस्ती में जिन्दगी गुजरती है हमारी। ऐसी परिस्थिति में मैं आपके खेत में मुफ्त किस तरह काम कर सकता हूँ?’’
‘‘तुम जियो या मरो, इससे हमें क्या! हमें सिर्फ हुक्त देना आता है। फिरोज! ज्माल को सौ कोड़े हमारी बातें न मानने के जुर्म और पच्चीस कोड़े हमारे साथ बहस करके हमारी षान में गुस्ताखी करने के जुर्म में लगाओ।’’ षाहीन ने पाँव पटकते हुए किसी गुस्सैल भैंसे की तरह डकराते हुए कहा।
बेचारा जमाल डर के मारे रोने लगा। फिरोज ने पूछा, ‘‘अरे जमाल! तू रोता काहे का है?’’
‘‘रोऊ नहीं क्या हँसूँ? मुझे क्या मालूम था। कि शाहीन इतना बड़ा तानाशाह निकलेगा।’’
‘‘मित्र, यहाँ तो हम खेल, खेल रहे हैं। इसमें सच्चाई कहाँ है।’’ षाहीन ने हँसते हुए कहा।
‘‘नहीं मित्र! अब हम ऐसा खेल कभी नहीं खेलेंगे, जिसमें किसान को किसी तानाषाह के आगे झुकना पड़े....’’ और इतना कहते-कहते जमाल सचमुच रोने लगा।
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