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लघुकथाएँ - संचयन - शहंशाह आलम
अवतरवा

‘‘उल्लू के पट्ठे, तू सामान उठाता है कि नहीं?’’
‘‘मजूरी में दो रुपए ही लूँगा सरकार!’’
‘‘उल्लू के पट्ठे, मैं तुझे दो रुपए ही दूँगा। तू सामान उठा।’’ सेठजी ने भुनभुनाते हुए कहा।
लेकिन, सेठजी के मुँह से अपने लिए बार-बार ‘उल्लू का पट्ठा’ शब्द सुनकर अवतरवा का गुस्सा सातवें आसमान पर जा चढ़ा। वह बोला, ‘‘सेठजी! मैं आपका सामान नहीं उठाऊँगा, चाहे आप मुझे अब चार रुपए ही क्यों न दें। मैं भी आप ही की तरह एक इंसान हूँ, फिर उल्लू का पट्ठा कहकर आप मुझे संबोधित क्यों किए जा रहे हैं-उल्लू का पट्ठा आपको भी तो कोई कह सकता है?’’
अवतरवा के जवाब पर सेठजी के मुख से गाली के सारे सृजन-तत्व बाहर निकलने लगे थे।
मगर अवतरवा चुपचाप सुनता रहा। फिर चंद लमहे के बाद अवतरवा के मुख से निकला, ‘‘सेठजी, आप सचमुच उल्लू के पट्ठे हैं!’’ इतना कहकर अवतरवा किसी अन्य यात्री का सामान उठाने के लिए आगे बढ़ गया।
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