गेट खोलकर भीतर घुसते हुए रमा देवी को देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। रमा का चेहरा सूखकर छुहारा हो गया था। केश बिखरे हुए थे। कपड़े भी मैले लग रहे थे। रमा का यह रूप देखकर श्यामा का दिल दहल उठा। एक कुर्सी बगल में खिसकाते हुए श्यामा ने रमा से बैठने के लिए कहा।
‘‘यहाँ नहीं, भीतर चलो ना!’’ कहती हुई रमा बिना प्रतीक्षा किए भीतर घुस गई।
ड्राइंग रूम में बैठते हुए श्यामा ने पूछा, ‘‘बाहर तो इतनी अच्छी गुनगुनी धूप थी.....फिर तुमने भीतर बैठना पसंद क्यों किया, रमा?’’
‘‘अरे! न्हीं जानती हो! ब्हू देख लेती न।’’ रमा ने कातर स्वरों में कहा।
‘‘बहू देख लेती तो क्या कर लेती? तुम्हें घर से निकाल देती क्या? तुम इतना क्यों डरती हो रमा?’’
‘‘डरने की बात नहीं है। वह झूठ–मूठ का बखेड़ा कर देगी। कहती है, दूसरों के यहाँ जाने से आदमी की इज्जत घट जाती है।’’
‘‘अच्छा! तो फिर वह क्यों घूमती है? खैर कहा! कैसे आई हो? आजकल तो तुम घर से बाहर निकलती ही नहीं! सूरत भी तो देखो! क्या बना रखी है।’’
‘‘सूरत और सीरत की बात मत करो बहन! अब तो जिंदगी पहाड़–सी लगती है। एक–एक पल मौत की प्रतीक्षा में काट रही हूँ।’’ रमा ने आंचल से आँखें पोंछते हुए कहा।
‘अरे! अब तो तुम्हारा घर भरा–पूरा है। पतोहू है, पोते–पोतियाँ हैं, फिर दुख किस बात का है?’’ श्यामा ने पूछा।
रमा कुछ नहीं बोली। चुप रही। पैर के अँगूठे से फर्श कुरेदती रही। उसको चुप देख श्यामा ने टोका, ‘‘क्या बेटा भी कभी कुछ नहीं पूछता?’’
‘‘वो तो दिन भर ऑफिस में रहता है। शाम को घर आता है, थका–हारा। उस समय में क्या अपना दुखड़ा उससे कहूँ....नाहक परेशान होगा। रमा ने कहा।’’
‘‘इसमें परेशानी की क्या बात है? यह तो उसका कर्त्तव्य है। घर में बूढ़ी माँ है। उसकी जरूरतें क्या है, इसकी खोज–खबर लेना। क्या बेटे का काम नहीं है? लगता है इधर तुमको खो खाने–पीने में भी टोटा हो रहा है?’’
श्यामा की बातों से रमा के भीतर दबा हुआ आक्रोश एकाएक फूट पड़ा, ‘‘क्या बताऊँ! जानती हो इतनी ठंडक में मैं नीचे जमीन पर सोती हूँ। आज कई दिन हो गए खाना खाए। बेटे–बहू ने पूछा तक नहीं।’’
‘‘क्या जमाना है! अरे बहू तो दूसरे की बेटी है। बेटा तो अपना जाया है। नौ महीने पेट में पाला। भला वह इतना कठोर कैसे हो गया। क्या उसे नहीं लगता उसके बेटे भी इसके साथ ऐसा ही सलूक करेंगे?’’
रमा ने श्यामा के मुँह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘नहीं! बहन ऐसी बद्दुआ मत दो। उसकी खुशी में ही मेरी खुशी है। आखिर में तो माँ हूँ न।’’
श्यामा चुपचाप रमा के चेहरे में अपना चेहरा ढूँढ रही थी।