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रूढ़ियाँ

सुमित्रा अपने ड्रांइग–रूम में अकेली बैठी हुई समय काटने के लिए टी.वी. खोलकर बैठी हुई थी। पति के कार्यालय जाने के बाद तो समूचे घर में वह अकेली रह जाती है। समय काटना मुश्किल हो जाता है। अब घर उसे सूना–सूना सा लगता है। आखिर वो क्या करे? अब तो लोग मुहाँ–मुँही पीठ पीछे उल्टी–सीधी बातें भी करने लगे हैं। यही सब सोचते हुए वह उदासी के भँवर में डूब–उतरा रही थी।
‘‘आंटी। आंटी आप किधर है?’’ कहते हुए सन्नी ने उनके ड्रांइग–रूम में प्रवेश किया।
‘‘आओ सन्नी बेटे। आओ। कहते हुए सुमित्रा ने उसे गोद में उठा लिया। सन्नी को गोद में बैठाने पर उसे अजब का अनुभव होता है। उसे एक प्रकार की तृप्ति मिलती है। वह चाहती है, सन्नी घंटों उसकी गोद में इसी तरह बैठा रहे।’’
‘‘आंटी, आंटी। आप बहुत अच्छी हैं। आप मुझे टाफियाँ देती हैं। खिलौनों से खेलने देती हैं। मेरी मम्मी बहुत गंदी है।’’
‘‘सन्नी बेटे। ऐसी बातें नहीं बोलते। मम्मी कभी गंदी नहीं होती। अच्छा तुम बैठकर टी.वी. देखो। मैं तुम्हें टॉफी देती हूँ। कहकर सुमित्रा भीतर चली गई।’’
सन्नी टॉफी खाते हुए सुमित्रा के साथ घुल–मिलकर खेल रहा था। दोनों अपने–अपने में खोए हुए थे। सन्नी खेलने में मस्त था और सुमित्रा उसके सान्निध्य के सुख में डूबी हुई थी।
‘‘सन्नी।’’ की कर्कश आवाज से दोनों का ध्यान टूटा। सुमित्रा ने देखा सन्नी की दादी मां लपकती हुई लॉन पार कर बरामदे में खड़ी चिल्ला रही थी। सन्नी सहमा हुआ उसका आँचल पकड़कर खड़ा था।
‘‘आइए ना माँ जी, बैठिए। सन्नी यहीं खेल रहा है। मैं चाय लाती हूँ।’’
‘‘नहीं बहू। फिर कभी आऊँगी तो बैठूँगी।’’ कहते हुए उन्होंने सन्नी का कान पकड़ा और उसे घसीटने लगी।
सुमित्रा चुपचाप खड़ी सन्नी को जाते हुए देख रही थी। उसके कानों में सन्नी की दादी मां की बातें गूंज रही थीं–‘‘खुद तो बाँझ बहिला ठहरी। किस्मत में तो बच्चा लेकर आई नहीं। दूसरों के बच्चों से लाड़ लड़ाने। सुबह–सुबह इसका तो मुँह भी नहीं देखना चाहिए। पता नहीं डायन ने सन्नी पर कौन–सा जादू टोना कर दिया है कि पलक झपकते ही वह उसके पास पहुँच जाता है। समझ में नहीं आता।’’
‘‘मालकिन।’’ महरी की आवाज में सुमित्रा का ध्यान टूटा। आँचल से आँखों में छलक आए आँसुओं को पोंछते हुए संभली। सारा घर उसे काटने लगा था।

 
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