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सुकेश साहनी
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शुरुआत

बस्ती में श्मशानी सन्नाटा पसरा हुआ था। चारों तरफ जले–अधजले सामान का ढेर लगा था। कहीं–कहीं छोटे–मोटे पशुओं के कंकाल भी नजर आ रहे थे। गाँव के लोगों ने पूरी रात गाँव के बाहर बरगद और पीपल के नीचे बने चबूतरे पर गुजार दी थी। बोझिल पलकों से नींद काफूर हो चुकी थी। सारे लोग भविष्य की चिंता में डूबे हुए सूनी आँखों से एक–दूसरे को देख रहे थे, चुपचाप, बेजुबान। वे अपने उजड़े चमन को निहार रहे थे।
गाडि़यों के काफिले रुकने से श्मशानी बस्ती के मुरदों में कुछ जान आ गई थी। फिर दुग्ध–धवल वस्त्रों में नेताजी के साथ–साथ उनके समर्थकों की भीड़ भी उतरी। पीछे–पीछे पत्रकारों एवं छायाकारों की फौज भी थी।
बस्ती से उठती चिरायन गंध और वस्तुओं के जलने की गंध से बचने के लिए नेताजी ने रुमाल से नाक बंद कर बस्ती वालों की तरफ मुखातिब होते हुए उन्होंने उन लोगों को अपने पास बुलाने का संकेत दिया। छायाकारों के कैमरे चालू हो गए थे। पत्रकार खोजी नजरों से घटना के भीतर की घटना को तलाशन में जुटे हए थे।
अर्जुन अलग–थलग खड़ा इन सारी बातों को देख रहा था। बस्ती का मुखिया नेताजी के पास चला गया था। नेताजी उसे सांत्वना दे रहे थे। अपने समर्थकों के माध्यम से सब लोगों को आर्थिक सहायता देने के लिए कह रहे थे। अर्जुन को लग रहा था वे फिर एक बार उजड़ने के लिए अभिशप्त हो रहे हैं। यह खेल तो वह कई वर्षों से देख रहा है। वह भीतर से बेचैन था। काका को उसने कितना समझाया था, किंतु काका लगता है फिर नेता की बातों में आ गए। नेता के समर्थक लोगों को पंक्तिबद्ध कर रहे थे। उससे रहा नहीं गया। उसने चबूतरे पर चढ़कर होंक लगाई–‘‘काका।’’ और चुपचाप दूसरी ओर मुड़ गया। सारे लोग उसके पीछे चल पड़े। काका भी मन मारे उसी ओर बढ़ गए।
नेताजी स्तब्ध समर्थकों के साथ जली हुई चिरायन गंध के बीच खड़े थे।

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