वह तीन वर्षों के बाद नौकरी से लौटा है। माँ के पाँव छूने बढ़ ही रहा है कि उसकी दृष्टि माँ की तार–तार हो गई साड़ी पर पड़ती है। उसकी आत्मा रो उठती है। स्पष्ट शब्दों में वह इतना ही कह पाता है, ‘ माँ, जितने पैसे मैं भेजता था, उससे कम से कम एक कपड़ा और दो समय की रोटी तो चल ही सकती थी फिर.....।’ माँ उसकी पत्नी की ओर मूक दृष्टि से देखती वहाँ से बाहर चली जाती है। पड़ोस का एक लड़का उसे बतलाता है कि जब से वह नौकरी से पैसा भेजने लगा, तब ही से उसकी पत्नी माँ से अलग रहने लगी है। कपड़े की स्थिति देखकर ही वह चौंक रहा है। खाने की स्थिति तो उससे भी खराब है। इस उम्र में भी पड़ोस में मजदूरी कर किसी तरह खाना जुटा पाती है। इसके सामने नौकरी पर जाने के दिन की तस्वीर घूमने लगती है–
वह एक बेरोजगार युवक था। समाज के उपालंभों और पत्नी के ताने से उब उसने किसी तरह का काम करने का निश्चय कर एक दूर शहर के लिए प्रस्थान कर दिया था। जाते वक्त उसने पत्नी से पूछा था कि वह उसके लिए क्या लाएगा? पत्नी ने व्यंग्य में कहा था, ‘हीरा–जवाहर’। छोटा मुन्ना ‘तार’(कार) लाने की जिद कर रहा था। बाहर निकलकर जब उसने माँ के पाँव छूए थे। माँ ने कपड़े में बन्धे एक सोने का आभूषण देते हुए आशीषा था और कहा था, ‘ले बेटे, यह सम्पत्ति का सिंगार और विपत्ति का आहार है।’ जब जैसा वक्त आए, उपयोग करना। और लौटते वक्त मेरे लिए यदि पैसा हो तो मोटे अक्षर वाला रामायण और छड़ी लेते आना। अब इन आँखों से रामायण का छोटा अक्षर नहीं पढ़ पाती।’