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लघुकथाएँ - संचयन - राजेन्द्र वामन काटदरे
खोटा सिक्का
ट्रेन धीरे हुई। शायद कोई स्टेशन आ रहा था। सुबह के साढ़े छह–पौने सात बज रहे होंगे। जनरल कम्पार्टमेंट में बैठे काकाजी ने मूँछों पर हाथ फेरते हुए काकी को आवाज दी और अखबार खरीदने के लिए दो रुपए का सिक्का निकाला और काका के हाथ पर धर दिया। सिक्का देख काका ने खड़ी आवाज में काकी का उद्धार शुरु कर दिया, ‘जरा अकल नहीं है तुममें। अरे इतने साल हो गए पैसा लेते–देते पर जरा ध्यान नहीं देती हो। देखो, कोई खोटा सिक्का थमा गया तुम्हें।’
काकी रुआँसी हो, बटुए से दूसरा सिक्का निकालने लगी तो काका बोले, ‘बस–बस रहने दो। तुम्हारी गलती हमें ही तो सुधारनी होगी। इसी सिक्के से खरीदेंगे हम अखबार।’
कुछ ही पलों में स्टेशन आ गया तथा चाय–कचौड़ी–अखबार आदि लिए फेरी वाले डिब्बों के आस–पास घूमने लगा, मगर काका ने अखबार नहीं खरीदा और वे शांत बैठे रहे। कुछ ही देर बाद जैसे ही ट्रेन चलने लगी, काका ने आवाज देकर एक अखबार वाले को बुलाया और अखबार लेते हुए उसे सिक्का थमा दिया, तब तक ट्रेन ने गति पकड़ ली।
विजयी भाव से काकी की ओर देखते हुए काका ने आँखों पर चश्मा रखा और जैसे ही उन्होंने अखबार खोला, उनका चेहरा उतर गया क्योंकि खोटे सिक्के से खरीदा हुआ अखबार पुराना था।
 
 
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