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लघुकथाएँ - संचयन - राजेन्द्र वामन काटदरे
संवेदना
नन्हीं चिडि़या धूल में लोट रही थी और चिड़ा कौतुक से उसे देख रहा था। तभी चूँ–चूँ–चूँ चहकते हुए चिडि़या ने पूछा–‘ए जी! कुछ सोचा कि कहाँ बनाएँ गे घरौंदा?’
‘इस मकान में बनाएँ तो?’ अब चिड़ा 4 नंबर के ड्राइंग रूम कि खिड़की से अंदर झांक रहा था।
‘छि: कितना अस्त–व्यस्त घर रहता है इनका। इससे तो अच्छा है हम सामने वाले घर में बनाए। वे लोग अच्छे हैं, उनका घर भी साफ–सुथरा और करीने से लगा हुआ है।’ और चिडि़या ने अपनी नन्हीं–नन्हीं सपनीली आँखों में एक नन्हें घरोंदे को साकार होते देखना शुरू कर दिया।
‘पगली, जिनका घर इतना साफ है, वे भला हमें घरौंदा बनाने तिनके क्यों इकट्ठा करने देंगे?’ चिड़े ने गंभीर होते हुए पूछा।
‘वे लोग परोपकारी हैं, देखते नहीं हर रोज हमारे लिए आँगन में पानी रखते हैं और दाने भी डालते हैं हम लोगों के लिए।’ अब चिडि़या की सपनीली आँखें अपने नन्हें घरोंदे को रंग–बिरंगे परों और धागों से सजा रही थी।
चूक–चूक हँसते हुए चिड़ा बोला, ‘बहुत भोली है रे तू, बहुत। परोपकारी जरूर है ये लोग, मगर घर के बाहर और वह भी मात्र दिखावे के लिए। कभी सोचा है तूने कि हमें नियमित दाने डालने की जगह ये अपने बूढ़े माँ–बाप को वक्त से खाना और दवा–दारु क्यों नहीं देते?’
 
 
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