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लघुकथाएँ - संचयन - शील कौशिक
हवा के विरुद्ध
अरोड़ा दंपति चाय पीते हुए सोच रहे थे–‘लगता है अपने डॉक्टर बेटा-बहू भी विदेश में या फिर किसी बड़े शहर में सैटल होंगे। भला हमारे पास इस छोटे-से शहर में आकर क्या करेंगे?’
तभी मोबाइल फोन की घंटी बजी। फोन डॉक्टर बेटे का ही था। उसने कहा, “हमारी एम.डी की पढ़ाई पूरी हो गई है। हम शीघ्र ही आपके पास वापस आ रहे हैं। वहीं अपना क्लिनिक खोलेंगे…।”
पति-पत्नी अवाक् एक-दूसरे को ऐसे देख रहे थे, जैसे उन्हें सुनी हुई बात पर विश्वास ही न हो रहा हो। सो इस बार श्रीमती अरोड़ा ने बेटे का मन टटोला, “बेटा, हमारी तरफ से कोई बंधन न समझना, कल कहीं तुम्हारे दिमाग में यह बात आए कि बड़े बेटे को तो अमेरिका में पढ़ा कर वहीं सैटल कर दिया और हमें यहाँ…।”
“कैसी बात कर रही हो माँ? हम ऐसा कुछ नहीं सोच रहे। हमने आप से और अपने शहर की मिट्टी से जो कुछ पाया है, अब उसे लौटाने का बारी है माँ।” बेटे ने दृढ़ता से कहा।
“देखो बेटा, ये ज़िंदगी भर का सवाल है। तुम्हारे बच्चे होंगे तो उन्हें पढ़ने के लिए बाहर भेजना पड़ेगा। यहाँ अच्छे स्कूल कहाँ हैं? एक बार फिर से सोच लो बेटा।” इस बार अरोड़ा साहिब बेटे को समझा रहे थे।
“पापा! हमने अच्छी तरह सोच समझ कर ही फैसला किया है।” बेटे ने उत्तर दिया।
फोन एक बार फिर माँ के हाथ में था, “बेटा…”
“माँ जी! लगता है आप नहीं चाहते कि हम आपके पास आकर रहें।” इस बार फोन पर बहू ने कहा।
“नहीं-नहीं, बेटे! तुम लोग जरूर आओ। तुम यहाँ रहोगे तो हमें बहुत खुशी होगी।” श्रीमती अरोड़ा की आँखों में आँसू छलक आए।
 
 
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