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लघुकथाएँ - संचयन - शील कौशिक
शुरुआत
शहर के प्रतिष्ठित वकील व समाज सेवी गोयल साहब के बेटे की शादी थी। इतने बड़े व्यक्ति की ओर से शादी का निमंत्रण आने पर गुप्ता दंपति गौरवान्वित महसूस कर रहे थे। परंतु वे सोच में भी पड़े हुए थे।
सुना है, एक नंबर का कंजूस है गोयल, वह तो ज्यादा शगुन की ही उम्मीद करेगा।” पत्नी ने कहा।
“हाँ, कह तो तुम ठीक ही रही हो, पर जाना तो पड़ेगा ही। शहर के नामी लोग आएँगे, इज्जत का सवाल है।” गुप्ता जी ने कहा।
अंततः उन्होंने लिफाफे में पाँच सौ रुपये का नोट डाला और शादी में पहुँच गए। गोयल साहब स्वागत के लिए गेट पर ही खड़े थे।
‘कोई बिना शगुन दिए न चला जाए, इसलिए गेट पर ही डटे हुए हैं।’– गुप्ता जी सोच रहे थे। उन्होंने बधाई देते हुए शगुन वाला लिफाफा गोयल साहब को पकडाना चाहा।
गोयल साहब ने बधाई स्वीकार करते हुए शगुन वाला लिफाफा लौटा दिया। गुप्ता जी आश्चर्यचकित हो इधर-उधर देखने लगे। उन्होंने देखा गोयल साहब किसी से भी शगुन नहीं ले रहे थे। गुप्ता जी का दावत का मजा बहुत बढ़ गया।
घर लौटते हुए गुप्ता जी ने पत्नी से कहा, “कितना अच्छा हो अगर सभी लोग गोयल साहब की तरह शगुन लेना बंद कर दें।”
 
 
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