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लघुकथाएँ - संचयन - हसन जमाल
घात की बात
‘‘बाबा! हर आहट पर तुम मुझे छिपने और दुबकने के लिए क्यों कहते हो?’’ साँप के बच्चे ने कहा, ‘‘तुम तो बहुत बहादुर हो। तुम्हारा काटा पानी भी नहीं माँगता।’’
‘‘ठीक कहते हो।’’
‘‘फिर छिपते क्यों हो?’’
‘‘बड़े होकर अपने–आप समझ जाओगे।’’ साँप ने आश्वस्त करना चाहा। पर साँप का बच्चा लाजवाब होना नहीं चाहता था।
‘‘मम्मा तो कहती है कि आदमी नाम का जीव हमारा सबसे बड़ा दुश्मन हैं वह आकार, बुद्धि, बल में हमसे बड़ा हैं।’’
‘‘वह सही कहती है।’’
‘‘वह यह भी कहती है कि आमदी बहुत बहादुर होता है। इसीलिए हमें उससे बचकर चलना चाहिए।’’
साँप धीर–गंभीर होकर बोला, ‘‘तुम्हारी मम्मी सब–कुछ नहीं जानती। मैं जानता हूँ। मेरी बात गाँठ बाँध लो! ठस संसार में कोई भी जीव बहादुर नहीं हैं सब भीतर से कायर हैं और अपने को बचाने की खातिर दूसरे पर हमला करने की घात में रहते हैं। तुम आदमी से डरना नहीं, बस अपने को बचाते रहना।’’
साँप की यह बात तब तक उसके बच्चे की समझ में नहीं आई, जब तक कि उसने खुद डसना नहीं सीख लिया।
 
 
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