आक्रमण बलात्कार के लिए ही था।
युवती आक्रमणकारी के चंगुल में असहाय पक्षी की तरह फड़फड़ा रही थी। निजात का रास्ता था। आक्रमणकारी ढंग से बाहर निकालकर नई देखी हुई फिल्म के अनुसार युवती के काबू में न आ सकने वाले चंचल हाथ–पैरों को बाँधने की ताबड़–तोड़ कोशिश कर रहा था। इस कोशिश में उसका सारा शरीर पसीने में नहा गया। बुरी तरह हाँफने लगा था वह। उसको लस्त–पस्त देख युवती ने पहली बार प्रतिरोध को रोका। हाथ–पैर ढीले छोड़ दिए। एक हल्की–सी मुस्कान के साथ उसने निहायत मुलायम आवाज में आक्रमणकारी को सम्बोधित किया, ‘‘क्या सारा बल तुम इसी काम में लगा देागे?’’ स्विच बंद करते ही मशीन जिस तरह स्थिर हो जाती है, आक्रमणकारी जड़वत् हो गया। एक सकते का आलम तारी हो गया उस पर। भौंचक्का–सा वह हाथ–आए शिकार को बेबसी से देखने लगा। लगा, सचमुच उसमें बल नहीं रहा।
और इसी दरमियान अस्त–व्यस्त कपड़ों को सँभालती हुई युवती उसके चंगुल से निकल भागी। आक्रमणकारी प्रत्याक्रमण की चोट तलाशने लगा, लेकिन चोट का निशान कहीं नहीं था।