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लघुकथाएँ - संचयन - हसन जमाल
पागल
सड़कें वीरान थीं। बाजार बंद। लू का सन्नाटा। वे दोनों गलबहियाँ डाले हुए जा रहे थे। दोनों कमर तक नंगे थे। एक ने फटी हुई नेकर, दूसरे ने एक पायँचे का पायजामा पहन रखा था।
चौराहे पर आकर दोनों ठिठक गए।
‘‘तुम कौन हो?’’ एक ने दूसरे से पूछा।
‘‘मैं हिंदू हूँ। तुम कौन हो?’’
‘‘मैं मुसलमान हूँ।’’
‘‘तो फिर हम लड़ते क्यों नहीं हैं?’’
‘‘पर हम तो पागल हैं!’’
‘‘फिर वे कौन हैं?’’
दूर एक टीले की ओट से बलवाइयों का हथियारबंद दल निकलता हुआ दिखाई दे रहा था। दोनों जबानी मशीनगनें दागने लगे–ध....धध्ध.....
‘ठांय!ठाय!.......’ यह असल थीं।
 
 
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