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लघुकथाएँ - संचयन - हसन जमाल
खुशफहमी
वह आदमी बेतहाशा भागा जा रहा था, बगटुट। मानो अगर वह कहीं ठहर गया तो पिछड़ जाएगा, हार जाएगा। लोग उसे अचरज से देख रहे थे, लेकिन उसको किसी की परवाह न थी।
आखिरकार एक जगह एक शख्स ने उसे रोक लिया। हालाँकि उस शख्स को भी इसके लिए दौड़ लगानी पड़ी थी, लेकिन भागनेवाले आदमी की बाँह उसके हाथ में आ गई, ‘‘क्यों भाई! तुम इस कदर तेजी से कहाँ भागे जा रहे हो? क्या तुम पर कोई विपदा आन पड़ी है?’’
उसने नाराज होकर रोकनेवाले शख्स को देखा और माथे का पसीना पोंछते हुए बोला, ‘‘जानते नहीं, जमाना कितनी तेजी से भाग रहा है? मैं किसी से पिछड़ना नहीं चाहता।’’
‘‘लेकिन श्रीमान, आपके आगे तो कोई नहीं है।’’
‘‘तुम ठीक कहते हो। मैं सबसे आगे निकल आया हूँ।’’
‘‘लेकिन आपके पीछे भी कोई नहीं है।’’
इस बार भागनेवाले आदमी के चेहरे पर चिंता के भाव उभरे। पीछे मुड़कर देखा। फिर जरा निश्चिन्त होकर बोला, ‘‘क्या सब के इतना पीछे रह गए हैं? उफ! बेचारे!’’
और वह इत्मीनान से रूमाल निकालकर पसीना पोंछने लगा।
 
 
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