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लघुकथाएँ - संचयन - कालीचरण प्रेमी
आतंक
आज पूर्णिमा है
अंगूरी हर पूर्णिमा के दिन व्रत रखती है. व्रत के दिन वह गांव के बाहर नुक्कड़ वाले देवता की पूजा करती और बच्चों को बताशों का प्रसाद बाँटती. कुटी वाले साधू ने बताया था कि ऐसा करने से उसके सब दुख-दलिद्दर दूर हो जाएँगे.
दोपहर दो बजे वह चिलचिलाती हुई धूप में वह छोटे ननकू को लेकर देवता के मढ़े में पहुँची. उसने घी का दिया जलाया. अगरबत्ती सुलगाई. आलेनुमा देवता के चारों ओर कलावा लपेटा. फिर होठों में कुछ बुदबुदाते हुए उसने ताजे जल का लोटा देवता के ऊपर धार बाँधकर डाल दिया. ननकू की आँखों में कौतूहल था. वह खड़ा हुआ होंठ बिचका रहा था. तभी ननकू को न जाने क्या शरारत सूझी, वह लपककर देवता के ऊपर कुर्सी के मानिंद बैठ गया. अँगूरी आग-बबूला हो उठी, ‘बेशर्म, देवता के ऊपर से उठ जा....कुछ तो डर देवता से....बेहया!’
ननकू नहीं उठा. उल्टा चिढ़ाने लगा. अँगूरी आपे से बाहर हो गई—‘नासपिट्टे! भला उठ जा इसके ऊपर से....ठकुराइन ने देख लिया तो फजीता कर देगी....’
ठकुराइन का नाम सुनते ही ननकू में दहशत भर उठी. उसे अपने पिता की पिटाई की याद हो आई. वह तुरंत खड़ा हो गया और नीचे कूद गया.
 
 
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