मैं वैसे भी होली के दिन घर से बाहर निकलना पसंद नहीं करता. सारे दिन मित्रों, परिचितों का आना-जाना अवश्य रहता है. थोड़ा-सा गुलाल लगाया और गले मिला. बस मन गई अपनी होली. इससे ज्यादा कुछ नहीं.
मैं सोच ही रहा था कि आज क्या काम निपटाया जाए. इतने में कुछ पुराने पत्रों की फाइल हाथ पड़ गई. यही सही. सबसे ऊपर एक पोस्टकार्ड रखा था. पंद्रह जून सन उन्नीस सौ नब्बे का. एक मासिक पत्रिका के संपादक महोदय ने सशक्त और स्तरीय रचनाएँ भिजवाने का आग्रह किया था. मैं खामख्वाह ही एक निरर्थक पत्र को सँभालकर रखे हुए था. मैं उस पोस्टकार्ड को खिड़की से बाहर फेंककर अगला पत्र पढ़ने में मशगूल हो गया.
ग्यारह बजते-बजते रंग और गुलाल लगाने वालों का सिलसिला आरंभ हो गया. प्रत्येक परिचित-अपरिचित रंग, गुलाल बाद में लगाता पहले कूड़े से उस पुराने पोस्टकार्ड को उठाता और फूँक मारकर झाड़ते हुए मुझे थमा जाता—‘अरे भाई साहब, आपकी चिट्ठी.’
‘ये तो बेकार है, बहुत पुराना पोस्टकार्ड है.’ कहते हुए मैंने उसे फिर कूड़े में फेंक दिया.
शाम तक यह सिलसिला अनवरत् जारी रहा. शर्मा जी से लेकर स्वीपर तक का ध्यान उस पुराने पोस्टकार्ड ने आकर्षित किया.
‘बड़े भाई, आपकी चिट्ठी बाहर पड़ी है.’ त्रिपाठी जी बोले.
‘आपके इलाके का पोस्टमेन बड़ा उदंड है.’ चिट्ठी कूड़े में ही डाल गया....’ सैनी साहब गंभीर थे.
आप तो डाक विभाग में है, फिर भी आपकी डाक की इतनी बेकद्री!’ वर्मा जी ने चिंता जताई.
‘डाक विभाग में अब भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है. आप डायरेक्टर लिखिए.’ लोकल नेता जी अपनी टोन में गुर्राए.
‘क्या जमाना आ गया है, डाकिया स्वयं को भगवान से कम नहीं समझता.’ सक्सेना जी बड़बड़ाने लगे.
मैंने शाम तक अनेक बार उस पुराने पोस्टकार्ड को वापस कूड़े में डाला, किंतु पोस्टकार्ड सकुशल मेरे पास लौटता रहा. इस क्रम को बनाए रखने में मुझे अपार व अलौकिक आनंद की प्राप्ति के साथ पोस्टकार्ड की महत्ता का आकलन भी हो रहा था.