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लघुकथाएँ - संचयन - कालीचरण प्रेमी
चोर मचाए शोर
डाकघर खुलते ही रजिस्ट्रेशन काउंटर पर भीड़ का रेला उमड़ पड़ा. घंटे-भर के भीतर मैंने सारी भीड़ को निकाल दिया. अब दो-चार लोग रह गए थे. मैं रजिस्ट्री-बुक में पुनः तारीख की मोहर लगाकर सामने काउंटर पर झुके व्यक्ति से बोला—‘लाइए, अपनी रजिस्ट्री!’
‘गोंद होगा आपके पास?’ उस सज्जन ने पूछा.
‘गोंद नहीं है,’ मैं बोला.
‘क्यों नहीं है?’
‘सरकार इतने पैसे नहीं देती कि गोंद भी रखा जाए.’
‘तुम झूठ बोल रहे हो. सरकार आम जनता के लिए सभी सुविधाएँ देती है. हर विभाग में भ्रष्टाचार फैला है. सरकारी कर्मचारी देश को लूट-लूट कर खा रहे हैं. हिंदुस्तान में चोर ही चोर भरे पड़े हैं.’ वे सज्जन जोर-जोर से बोलने लगे तो डाकघर के अन्य कर्मचारी अपनी सीटों से उठकर देखने लगे. उन सज्जन को जोश आ गया. उन्होंने भ्रष्टाचार पर लंबा-सा भाषण झाड़ डाला.
मैं किंचित हैरत में पड़ गया. जरा-सी बात पर इतना हंगामा. पोस्टमास्टर साहब ने संकेत से मुझे अपने पास बुलाया और गोंद की ट्यूब देकर कहा—
‘लो यह दे दो, बला टालो सिर से.’
अगले पल मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा. मैंने देखा कि वे सज्जन एक पुरानी रजिस्ट्री से टिकट उतारकर नई रजिस्ट्री पर चिपका रहे थे.
 
 
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