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लघुकथाएँ - संचयन - शिव नारायण
चरैवेति–चरैवेति
एक यात्री ने राजदरबार में पहुँचकर राजा से निवेदन किया, ‘‘महाराज! मैं दूर देश की यात्रा पर निकला हूँ। आज की रात आपकी शरण में बिताना चाहता हूँ। कल तड़के आगे की यात्रा पर निकल जाऊँगा। कृपया आज की रात मुझे शरण दे दें।’’
राजा ने मंत्री को आदेश दिया, ‘‘यात्री को राजकीय अतिथि मानकर तदनुकूल सत्कार किया जाए तथा इनके रहने की व्यवस्था राजकीय अतिथिशाला में की जाए।’’
मंत्री राजा की आज्ञा के शिरोधार्य करते हुए यात्री के साथ अतिथिशाला पहुँचे। अतिथिशाला में सैकड़ों विशालकाय कमरे थे, परन्तु संयोग ऐसा हुआ कि उस दिन एक भी कमरा खाली नहीं था। मंत्री चक्कर में पड़े। रात बीतती जा रही थी, किंतु यात्री के ठहरने की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। यात्री ने पूरी रात बाहर ही चक्कर काटते हुए बिता दी। सुबह होने पर राजा के निकट पहुँचे उससे विदा माँगते हुए कहा, ‘‘राजन! मुझे विदा करे। दूर देश की यात्रा को निकलना है।’’
राजा ने मंत्री के द्वारा पिछली रात की कथा मालूम हो चुकी थी। क्षमा–याचना करते हुए कहा, ‘‘प्रियवर! पिछली रात आपको अपार कष्ट हुआ। आप और कुछ दिन ठहर जाएँ....आज आपके राजकीय प्रवास का पक्का इंतजाम हो जाएगा।’’
यात्री ने कहा, ‘‘क्षमा करें महाराज! मैं किसी भी स्थिति में नहीं ठहर सकता। ठहरना मैंने सीखा भी नहीं है। मुझे तो चरैवेति–चरैवेति की ही शिक्षा मिली है। मुझे आपके आतिथ्य से कोई शिकायत नहीं है। आपका आतिथ्य ग्रहण करना शायद मेरे भाग्य में नहीं था’’-कहकर यात्री चल पड़ा। कुछ दिनों बाद वह एक रेगिस्तान से गुजर रहा था। बीच रेगिस्तान में पहुँचने पर उसे आँधी के आगमन का आभास मिला। अनुमान सही निकला। हवा तेजी से बहने लगी। वह तेजी से सुरक्षित स्थान की तलाश में इधर–उधर बढ़ने लगा। तभी उसे एक छोटा–सा आश्रयस्थल दीख पड़ा। वह उस ओर बढ़ चला। एक अत्यंत छोटा–सा लकड़ी का कमरानुमा घर था। उसने कुंडी खटखटाई। थोड़ी देर में एक बूढ़े ने दरवाजा खोला। यात्री ने अपनी मुसीबत बताते हुए रात–भर के लिए आश्रय की प्रार्थना की। बूढ़े ने उसे अंदर कर लिया। बिलकुल ही छोटा–सा कमरा था। सामने खाट पर एक बूढ़ी लगातार खाँस रही थी। बूढ़ी लेटी रही और वह दोनों किसी तरह बैठ गए। बाहर भीषण हवा के झोंकों में सर्वत्र रेत ही रेत फैली थी। तभी किसी ने पुन: कुंडी खटखटाई। बूढ़ा उठा। दरवाजा खोला। एक आगंतुक याचना-भाव में हाथ जोड़े खड़ा था। बूढ़े ने उसे अंदर कर लिया। बाहर आँधी चलने लगी थी। पुन: कुंडी खड़की। बूढे ने दरवाजा खोला। एक और आगंतुक प्राणरक्षक की मुद्रा में खड़ा था। उसकी दयनीय स्थिति देख बूढ़े ने उसे भी अंदर कर लिया।
बूढ़ी उठ बैठी। दो जने के उस छोटे कक्ष में पाँच व्यक्ति समाए किसी तरह रात बिता रहे थे। एक बार पुन: कुंडी खड़की। एक नया आगंतुक आश्रय की याचना के साथ खड़ा था। वह भी अंदर कर लिया गया। अब वे छह हो गए। कक्ष में किसी के बैठने की जगह शेष नहीं थी। सभी खड़े हो गए। बूढ़ी अस्वस्थ स्थिति में लगातार खाँस रही थी और बूढ़ा बुदबुदा रहा था, ‘‘घबराओ नहीं, सुबह तक सब ठीक हो जाएगा। ईश्वर ने अपनी जिन संतानों को भेजा है, उनका आतिथ्य–सत्कार करना तो हम सभी का सबसे बड़ा धर्म है।’’
अंतत: रेगिस्तान की वह आँधी-भरी रात किसी तरह समाप्त हुई। सुबह यात्री ने बूढ़े से विदा माँगी, ‘‘बाबा, हमें विदा करो। तुमने हमारी जान की रक्षा की है। हम तुम्हारा यह आतिथ्य कभी नहीं भूलेंगे।’’ बूढ़े ने विनती की, ‘‘बेटा! रात तुम सबकी कोई सेवा नहीं कर पाया। आज दिन भर ठहर जाओ.....मैं भोजन का इंतजाम करता हूँ....।’’
यात्री ने कहा, ‘‘इसकी जरूरत नहीं बाबा! तुमने हमारी प्राण–रक्षा की....यही तुम्हारी सबसे बड़ी अतिथि–सेवा है। वैसे ठहरना मैंने सीखा भी नहीं है...मुझे चलते रहने की शिक्षा मिली है...चरैवेति–चरैवेति....।’’
 
 
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