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लघुकथाएँ - संचयन - शिव नारायण
आजकल
एक सरकारी महकमे के उच्चाधिकारी रविवार की शाम अपने परिवार के साथ टी.वी. पर फिल्म देख रहे थे। उनके दो–एक मित्र भी आए हुए थे। कमरे के पड़ोस की कुछ महिलाएँ एवं बच्चे भी थे। कमरा लगभग भरा था। अच्छी फिल्म थी, जिसे सभी तन्मयता से देख रहे थे।
तभी टी.वी. के स्क्रीन पर एक बेडरूम का दृश्य उभरा। बेडरूम की बनावट एवं भव्य साज–सज्जा देखकर उच्चाधिकारी की बड़ी पुत्री, जो यूनिवर्सिटी में पढ़ती थी, अकस्मात् बोल पड़ी, ‘‘अरे, यह तो होटल मौर्य का बेडरूम है।’’
उच्चाधिकारी चौंक पड़े। उनकी प्रशासकीय चेतना तत्काल जाग्रत हुई, ‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि यह होटल मौर्य का बेडरूम है?’’
उनकी लड़की जैसे आसमान से गिरी। लगा, कुछ गलत कह गई वह, लेकिन बात उसकी जुबान से फिसल चुकी थी। मुरझाकर बोली, ‘‘प...प....पापा, ऐसा है कि मेरी एक फ़्रेण्ड बता रही थी कि होटल मौर्य में बिलकुल ऐसा ही बेडरूम है...म....म..मैं कुछ नहीं जानती......प...प पापा।’’
अधिकारी के विवेक ने भी झटका खाया। सोचा, उन्हें तुरंत ऐसा नहीं कहना चाहिए था...फिर कमरे में बाहरी लोग भी हैं, किंतु बेटी की फटकारना भी जरूरी लगा। बोले, ‘‘आजकल तुम कुछ अधिक शरारत करने लगी हो। अच्छी लड़कियों से दोस्ती करो और यूनिवर्सिटी से सीधे घर आया करो.....समझी?’’
 
 
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