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लघुकथाएँ - संचयन - नरेन्द्र कुमार गौड़
अहसास
आज बाजार से गुजर रहा था। तो सोचा बच्चों के लिए केले लेता चलूँ। रेहड़ी वाला आवाजें लगा रहा था–छह का दर्जन, बढि़या केला छह का दर्जन।
‘क्यों भाई? बड़ा महँगा कर दिया केला’–मैंने केले का एक गुच्छा उठाते हुए पूछा।
‘क्या करें बाबूजी, बाजार में हर चीज महँगी हो गई है–कुछ भी खरीदने जाओ आग लगी पड़ी है....आग–। आप ये केला ले लो बाबूजी, तीन का दर्जन लगा दूँगा–रेहड़ी वाले ने रेहड़ी के कोने में बिखरे अलग–अलग केलों की तरफ इशारा करते हुए कहा। फिर व्यंग्य से हँसते हुए कहा–बाबूजी, है ना अजीब बात। केला वही है बस गुच्छे से अलग होते ही कीमत आधी हो गई है।
रेहड़ी वाला बोलता जा रहा था और मैं सोच में पड़ गया–मेरी कीमत भी तो आधी हो गई है जब से गुच्छे रूपी संयुक्त परिवार से अलग हो गया हूँ।
 
 
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