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लघुकथाएँ - संचयन - नरेन्द्र कुमार गौड़
आदमी
रविवार को उसने अपनी पत्नी के साथ दोस्तों के र जाने का प्रोग्राम बनाया ताकि उसके दोस्तों की काफी दिनों पुरानी शिकायत कि कमी र नहीं आते दूर की जा सके।
वे दोनों पहले एक दोस्त के र गए वहाँ पति–पत्नी की पहले ही किसी बात पर तू–तू, मैं–मैं हो रही थी। एक बार तो पति–पत्नी र आए मेहमानों को देखकर खुश हो गए किन्तु, जितनी देर तक वे लोग वहाँ बैठे उतनी ही देर तक पति और पत्नी की हर बात में टोका–टोकी करता रहा तथा झिड़कता रहा। आखिर उन्होंने किसी तरह चाय समाप्त की और उनसे विदा ली।
रास्ते में पत्नी कह रही थी कि इस औरत का आदमी कितना कमीना है। अपनी पत्नी को बात–बात पर प्रताडि़त करता रहता है। बेचारी बहुत तंग होगी अपने पति से। इसके तो भाग ही फूट गए। कैसे गुजारेगी ऐसे आदमी के साथ बाकी की जिन्दगी।
वह इस तरह की बातें कर ही रही थी कि उसके पति के दूसरे दोस्त का र आ गया। वे जब अन्दर गए तो देखा पति–पत्नी मिलकर कपडे़ धो रहे थे। पत्नी कपड़ों पर साबुन लगा–लगाकर पति को दे रही थी तथा पति उन कपड़ों को साफ पानी से खंगाल–खंगाल कर निचोड़–निचोड़ कर रस्सी पर सुखा रहा था। उनके आते ही पति–पत्नी कपड़े धोना छोड़कर हाथ पोंछकर आ गए। खुशी–खुशी दोनों ने मिलकर चाय बनाई। पत्नी चाय में पाी–चीनी व दूध डाल रही थी तो पति टे्र में नमकीन व बिस्कुट डाल रहा था। पति ने नमकीन व बिस्कुट की प्लेट रखी वही पत्नी भी साथ–साथ चाय छानकर ले आई। पत्नी जो भी बात कहती पति उसकी हाँ में हाँ मिलाता और दोनों एक दूसरे के मुँह की तरफ देखते फिर बातें करते। सबने मिलकर चाय पी खूब हंसी–मजाक हुआ–ठहाके लगे तथा वे दोनों उनके भी हाथ जोड़कर विदा लेकर चल पड़े। रास्ते में पति कह रहा था–देखा, कैसा जोरू का गुलाम है। कैसे उसके साथ लगकर कपड़े धुलवा रहा था। और कैसे अपनी पत्नी की हाँ में हाँ मिला रहा था। जैसे अपना खुद का दिमाग तो है ही नहीं। ऐसा आदमी भी कोई आदमी होता है भला।
 
 
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