वह मेरे सामने डिब्बे में घुसा। फिर ओझल हो गया। स्टेशन पर बहुत भीड़ है। मैं असहाय–सा ट्रेन की खिड़की के सींकचें को पकड़े खड़ा रह गया। छड़ का लोहा ठंडा और सख्त है। उन कुछ मिनटों में घबड़ा भी गया हूँ। मुझे एकाएक गुजर चुके दिन याद आ गए। इस तरह घबड़ा जाना उन दिनों कहाँ था। मैं अपने विचारों में खोया जा रहा हूँ, भीतर और भीतर कोई जैसे खींच रहा हो कानों के करीब किसी ने कहा–‘‘हैलो’’। मैंने देखा। डिब्बे के भीतर वह खिड़की में से झाँक रहा है। थोड़ा झुककर वह खिड़की के करीब सीट पर बैठ गया वह चुप है औश्र बीच–बीच में स्टेशन की ड़ी देख लेता है।
मुझे याद आया, ऐसा मैं भी करता था, खिड़की वाली सीठ पर बैठना और बाहर झाँकना, जहाँ मेरे पिता रहते थे और उनके पीछे दीवार पर एक घड़ी।
थोड़ी बहुत तब्दीली के साथ वही स्टेशन, थोड़ी बहुत तब्दीली के साथ वैसा ही गाड़ी, वैसे ही लोग, प्लेटफार्म पर लगभग वही भाग–दौड़ और वैसी ही एक घड़ी.....सिर्फ़ जहाँ मेरे पिता खड़े हो जाते थे, वहाँ मैं खड़ा हूँ और खिड़की के पार अब मेरा बेटा है।.....कब और कैसे ट्रेन धड़धड़ाती निकल गई।
लौटते हुए मेरे पिता जा रहे हैं। मेरी कमीज में से उनके हाथ निकले हुए हैं,वही पहचाने ठंडे और पस्त हाथ। पैर उनके पैरों में बदल गए हैं। मैंने देखा कि मैं उन्हीं की तरह रुक–रुक कर चल रहा हूँ। मुझे आज पता चली कि वे एकदम नहीं लौटते थे। पत्थर की बेंच पर थके से बैठ जाते थे और अपनी कमजोर आंखों से जाती हुई ट्रेन के आखिरी डिब्बे को देख लेने की कोशिश करते थे, जैसे वह उनकी जिंदगी का देखा जाने वाला आखिरी डिब्बा है। तब शाम ऐसी ही उदास हो जाया करती थी। शर्म और रंज से लथपथ सूर्य लोको–शेड के पीछे मुँह गड़ा लेता था।
बहुत देर बाद कहीं वे उठने की हिम्मत जुटा पाते और धीरेे–धीरे घर की तरफ चलने लगते। पत्थर की बेंच पीछे छूट जाती है। पत्थर की सड़क पर सिर्फ़ एक साया रह जाता है, रुक–रुक कर चलता हुआ। अगले मोड़ पर वह साया गायब है।
स्टेशन पर फिर ट्रेन के आने की आवाज आ रही है।