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लघुकथाएँ - संचयन - मुकेश वर्मा
बलि
दस वर्ष के कुमार को सामने देखकर मुझे यक–ब–यक तूफानी बारिश को वह भयावह रात याद आ गई, जैसे बिना दस्तक दिए पुराने घर का जर्जर दरवाजा झूलकर खुल गया हो।
अजीब आलम था। बड़े भाई बदहवास। भाभी के हाथ–पैर फूल गए थे। कुछ देर पहले की पारिवारिक खुशियाँ चकनाचूर होकर घर में यहाँ– वहाँ मुँह के बल पड़ी थीं। अभी परसों ही भतीजी के बेटा हुआ था , लेकिन तीसरी शाम को ही निस्तेज होने लगा। डॉक्टरों को बुलाया। जीवन–मरण का संकट ऐन सिर पर खड़ा हो गया। दिल बैठ गया। सलाह दी गई कि फौरन इंदौर में किसी बड़े डॉक्टर को दिखाया जाए। आनन–फानन गाड़ी का इंतजाम किया गया। इसी इंतजाम के चलते धीरे–धीरे बरसती बारिश ने कयामत का रूप ले लिया और आँधी–तूफान के साथ कहर बरसाने लगी।
जैसे–तैसे, गाड़ी में बड़े भाई, दामाद, भतीजी और उसका बेटा लिये हुए भाभी बैठीं। वे रह–रहकर रो रही थीं। इंक्यूवेटर में तीन दिन का बच्चा। ऑक्सीजन का सिलेंडर लिए बगल में मैं बैठ गया था। एम्बेसेडर गाड़ी चलने के पहले कई बार तेजी से हिली–डुली, अटकी और गुर्राई। उस गुर्राहट में कष्ट, करुणा और घबराहट ज्यादा स्पष्ट थी। फिर तेजी से उज्जैन की गलियाँ फलांगती आगे बढ़ी। सौ–दो–सौ कदम ही चले थे कि शहर की तमाम बत्तियाँ गुल हो गई । अँधेरा हमारे भीतर तक आ गया। बड़े भाई ने खिड़की के काँच से सिर टिकाकर आँखें मूंद लीं। भाभी निस्तब्ध अँधेरे को अवाक् बस देख रही थीं। बाहर मूसलाधार पानी, रास्ता टटोलती क्षीण–प्राण पीली रोशनी और यातना के अँधेरे में रह–रह बिजली की तेज चमक और फिर बादलों की दिल दहला देने वाली गड़गडाहटें। जीवन ठहर गया और जैसे सब कुछ सिमट कर गाड़ी के अहाते में कैद हो गया, जहाँ सिर्फ़ अपनी ही नहीं दूसरों की साँसें भी गुम थीं।
बारिश की तेज बौछार सामने के काँच को तहस–नहस करने पर अमादा थी। काँच पिंघल रहा। ड्राइवर फटी हुई । आँखों से सामने नजर जमाकर स्टीयरिंग व्हील सँभाल रहा था। मोड़ पर मुड़ते सारा जीवन हिल जाता। अकस्मात् सामने कुछ उभरा। गायब होता दिखा। जोरदार झटके से ब्रेक लगे ,पर देर हो चुकी थी। एक कुो की करुण चीख कानों को छेदती चली गई। किसी का मन रुकने का नहीं था। फिर भी ड्राइवर रुका। दरवाजा खोलकर पीछे भागा। शिकारी टार्च की तेज लाइट में देखा। रोड को बायीं ओर कीचड़ में वह छोटा–सा काला कुत्ता पीठ के बल आकाश में टाँगे फड़फड़ा रहा था। धीरे–धीरे उसकी चीख दुख भरी रिरियाहट में बदल गई। वह समाप्त होगया। फिर बारिश ने जल्दी सब साफ कर दिया।
ड्राइवर भारी कदमों से लौटा। गाड़ी चलते ही बड़े भाई जैसे नींद से जागे हों। चिहुँककर बोले–‘‘अब सब हो जाएगा, शगुन हो गया। ईश्वर ने एक प्राण ले लिये। एक प्राण छोड़ दिये। कुमार बच जाएगा....’’ और वे तंत्र विद्या की परंपराओं और नरबलियों के वृतांत सुनाने लगे। हम सबने राहत की साँस ली। ड्राइवर ज्यों का त्यों सामने देख रहा था, काँच के उस पार जैसे इस पार से उसे कोई मतलब न हो। हम सब धीरे–धीरे अपने आप में लौटने लगे। सामने साँवेर कस्बे की रोशनी चमक रही थी। बड़े भाई ने कहा–‘‘यहाँ चाय पिएँगे। छोटी–मोटी बारिश से क्या फर्क पड़ता है। उठो।’’
 
 
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