वह जा रही है और मैं उदास हूँ। वह जा रही है और मैं उदास हूँ।
वह बेटे से मिलने दूसरे शहर जा रही है। होस्टल में रहता है। उसने न जाने कितने दिनों से तैयारियाँ कर रखी हैं। उसके सामान में उसके दो–तीन कपड़ों के अलावा जो कुछ भी सामान है, सब बेटे के लिए है। कई बैगों और झोलों में वह दुनिया की हर चीज लिये जा रही है। लीची और अदरक के अचार, नारियल की गनरी, सुनहरी सेवइयाँ, पापड़, बिजौरा, सूखी हरी मिर्च, तेज लहसुन वाला नमकीन, सोनपापड़ी, बादाम, पेन, पेन स्टेण्ड, पेपरवेट, स्केल, रबर, टीशर्ट, पैंट, अंडरवियर, बनियान, मोजे, टाइयाँ, दस्तानें, कन्टोप, रूमाल, नया कैलेंडर, डायरी, छोटी–छोटी खिलौना कारें, रंगीन स्टीकर, ग्रीटिंग कार्ड, मुँहासे साफ करने की और त्वचा ठीक रखने की क्रीमें, कंघा, छोटी कैंची, नाड़ा, सुई–धागा, नेफ्थलीन की गोलियाँ, चाकलेट, खट्टी–मीठी गोलियाँ, साईंबाबा की तस्वीर, ताबीज, छोटे से गणेशजी, छोटा–सा गिलास, बाकी कुछ अगर रह गया है तो उसके मन की तहों में दर्ज है। छूटे सामान में कहीं कुछ क्या और कुछ है?
इस वक्त भी ट्रेन के डिब्बे में अपनी जगह पर बैठकर अपने सामान की जाँच कर लेना चाहती है। वह व्यग्र औा उत्तेजित है। कभी–कभी वह वैसे ही हँस देती है। निश्चय ही यह हँसी अकारण नहीं होती है। उसका कारण लिये प्लेटफार्म पर चुपचाप मैं खड़ा हूँ।
उस दिन भर वह अपने कामों में खोई रही। उन तमाम चीजों को चाव से बार–बार उठाना, ठीक करना, सहेज कर रखना और देखना। इस सबके दौरान वह कोई गीत गुनगुनाती रही। तन्मयता में शब्द अस्पष्ट और स्वर अस्फुट थे। दूर आवाज लेकिन एकदम पास और साफ सुनाई पड़ती हुई। उस वक्त भी मैं वहाँ खड़ा था, उसी तरह जैसे इस वक्त प्लेटफार्म पसर खड़ा हूँ।
ट्रेन हिली। धीरे–धीरे चलने लगी। हठात् उसने खिड़की के बाहर मुझे देखना चाहा। एअरकंडीशंड डिब्बे की खिड़की पर लगे भद्दे मटमैले काँच में से सिर्फ़ उसका हाथ क्षण भर के लिए हिलते हुए दिखा और काँच पर छाप की तरह स्थिर हो गया।
मैं मुड़ा। लौटा। घर का दरवाजा धीरे से खोलकर दाखिल हुआ। सामने कमरे में भी चारपाई पर बैठी वही पुरानी धार्मिक किताब पढ़ रही हैं। उन्होंने बेभाव चेहरा तनिक उठाया। बे आवाज देखा। फिर किताब पढ़ने लगीं। मैं ठिठका। क्षणभर खड़ा रहा। वे उसी तरह पढ़ती रहीं। फिर उसके कमरे की ओर बढ़ गया, जहाँ बिस्तर में रात अपने ठंडेपन के साथ सुई की नोंक पर मेरा इंतजार कर रही है।